जर से चिर चेतन शिविर, क्षय क्षर तिमिर हर दूर कर भाति पेख अलख़ों को लेख, दिव नाक देख हुज़ूर धर रश्मि के साये जहाँ काल गाये, रंजन मनाय ज़रा संभल सृष्टि लोम विकृत विलोम, बस मध्य ॐ अलल विकल तन मन अपर स्वः रूह पर, साधन समर लर बन विजय मनु बन्ध तोर बीते करोर, जन्मों को जोर विचर अभय मारग अगम भूमि सुगम, मरमी परम विज्ञान ध्येय मृत मय अभाव चितद्युति समाव, अमिनद्य स्त्राव विद् ब्रह्म ज्ञेय "ब्रह्म आह्वान" ऋषित्व का चिरन्तन परिचय देती एक विभवपूर्ण कविता इस कविता की प्रेरणा मुझे मिली है एक दिव्य अनुभूति के रूप में.. मेरी साँसे तेज हो गयी थीं, शरीर काँप रहा था, एक थर्राहट सी थी.. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा.. यह जो अनुभव आज हुआ उसी की परिणामिनी कविता आपके समक्ष ईश्वरीय सत्ता को समर्पित करने में अत्यंत हर्ष की अनुभूति होती है..