नव प्रगतिवाद एक आखेट " नव प्रगतिवाद एक आखेट " हम उद्दीपन की ऐसी व्यवस्था के शिकार क्यों हो रहे हैं, जहाँ उच्छृंखल विषयों पर भी विकल्पहीनता देदीप्यमान हो उठती है? क्या वर्तमान सामाजिक सांस्थिक चर्याऐं अब इतनी कृशकाय हो चुकी हो हैं कि उनकी अंत:भृत्तियाॅं तक दायित्वों के प्रति अबोधात्मकता को स्वीकृति प्रदान कर रही हैं? क्या हो रहे अतितीव्रगामी परिवर्तन ऐसी सांस्थिक प्रवृत्तियों में अधोमुखन के जिम्मेदार हैं जहाँ समष्टिवादी संरचनाओं के मूल्य शून्य संकुचन के पथ पर अग्रसर होते हुए वैयक्तिकता में आसन्न हो रहे हैं और केवल नित्य लाभ की अहर्निश अपूर्ण तृष्णाओं में ही मोक्षोन्नति की कल्पना कर पा रहे हैं. मानव जीवन एवं भौतिकतावादी सुखों के मध्य में होने वाले अन्तर्द्वण्दों में तकनीकी उन्नयनों ने तो मानौ भावात्मक बुद्धिमत्ताओं को पतनोन्मुख बनाये रखने का प्रण ही ले रखा है. जब कभी भी प्रस्थितिजन्य दुरुहतायें एवं दुविधायें निष्ठाओं और निर्वहित जीवन मूल्यों को किसी ऐसे स्तर पर तिर्यक प्रतिच्छेदित करने लगती हैं जहाँ किसी एक का चयन किसी अन्य के लिए अनैतिक परिणामी होने का प्रश्न हमेशा तर्किक एवं नीति संगत बनाये रखता है. वहाँ आधुनिक परिदृश्यों केवल समष्टिताओं की ही बलि दी जाती है. आजकल के तथाकथित द्वै - सैपियंसों के "अहं ब्रह्मास्मि" एवं "स्वयमेव - स्वंभूवाद " ने तो उन रावणिक अभीप्साओं को भी बौना बना दिया है, जिसमें वह पातालोवस्थित लंका से देवलोकी स्वर्ग तक सीढ़ी लगाना चाहता था. अपने सत्ता और वैचारिक वर्चस्व के उसने संभवतः वही मानदंड अपनाये थे, जिन्हें वर्तमान में एकेश्वरवादियों के द्वारा स्वसांस्कृतिक विस्तारोन्नयन, युद्ध व उपनिवेशों के नाम मानवतावादिओं को सुनम्यताओं के आधारों पर हाशियाकृत किये जाने का धरणीसह धरणेत्तर संघर्ष वैश्विक पटलों पर किया जा रहा है. पुरातन पारम्परिक व्यवस्थाओं के विपरीत चलना, उन्हें व्याप्त सामाजिक असानताओं का दोषी करार देना, उनके औचित्यों की बंद आंखों से पूर्वाग्रहित भर्त्सना करना एवं उनके स्थापित मूल्यों की ऐनकेनप्रकारेण अवहेलना करना प्रगतिशील बुद्धिजीवी कहलाने का उत्कृष्ट मानक हो गया है. 'या जानासि स: पण्डित:' उक्त सूक्ति 'या निंदसि स: पण्डित:' में पुर:स्थापित हो चुकी हैं. सामाजिक वेत्ताओं का कहना है कि भाषा किसी भी संस्कृति की मूल होती है, उनके लिपियन तथा गठित शहरी विन्यास ही उन्हें सभ्यता बनाते हैं. ऐसे में यदि नवसमाजों का मूल्यांकन करें स्थानीय भाषायें निकृष्टतम हीनता के अवमानना के साथ दोयम दर्जे की पहचान हासिल कर ही चुकी हैं, वैज्ञानिक एवं गणितीय भूमिकाओं के संपादन में भाषायी अवरोहण में नगण्यता की दशा तक आ गयी है, नवीन पीढ़ियां हिन्दी आदि के अंकीय निरूपकों से लगभग अनभिज्ञ हो ही रही है. अत: उक्त विश्लेषणों के आधार पर यह तार्किक आशंका व्यक्त की ही जा सकती है कि भारतीयता की सांस्कृतिक निरन्तरता के अधोगमन को अब पुनरोद्धारित करने की समीचीनता अनिवार्य हो गयी है. वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक व क्षेत्रियताओं में सांस्कृतिक अतिक्रमण के परिणामी विभंगों ने जिन दुर्दोषों को जाया, परिपोषित एवं संवर्धित किया. नर जातियों को प्राकृतिक मानव से बाजारी उपभोक्ता मानव में रूपांतरित कर दिया, उनके ज्ञानांगों की अमूर्तित कल्पनाशीलता को विवेकहीन बना दिया. सच में आज का मानव मानव नहीं 'मिट्टी का माधव' बन गया है, उसकी विचार शून्यता ने तकनीकी सिद्ध कुबेरों के धनचारों के अतिरिक्त कुछ नहीं बनाया. आज की व्यस्ततम् मशीनी जिंदगी में लोगों को कुछ सोचने का समय कहाँ है. वो शेर है न....