महीन डोर। एक महीन डोर को थामे कहीं उलझी कहीं कमजोर गांठों को बांधे जाने कब से में अडा हूं समय से लड़के समय के साथ खड़ा हूं दिल मेरा भी कमजोर है पर हार अपनाने को राज़ी नहीं जाने कैसी ये आस की लौ है जो अब तक मुझमें है जलती रही आंखें बंद करके पिए मैंने भी कड़वे घूंट कई फिर जाके जुटाया बल खुदमे अब बिखर भी गया तो डर नहीं बिखरा तो फिर भी समेट लूंगा टूटा भी कुछ हद तक लूंगा जोड़ नहीं टूटे बस जो है हाथ में रिश्तों की नाज़ुक ये महीन डोर तो क्या हुआ जो हो गई हैं बोझिल सी आंखें तो क्या हुआ जो थकने लगी अब सांसे मन में अब भी है एक अनजाना सा विश्वास कर दूंगा सब कुछ ठीक में चाहे रहूं दूर या फिर पास हार जीत का तो कभी सोचा ही ना था बस रहें खुश सभी पा जाएं जो कुछ है मन में बसा क्यूं बंधा हूं मोह में? पूछ बैठता हूं खुद से यूंही पाकर खुद को अपनो में, अगले ही पल भुला देता हूं सब जिसका अस्तित्व नहीं कुछ पल सुकून के बना पाऊं समय के इस अध बने से चित्र पर पार कर जाऊं इस जीवन भंवर को समेटे खुशनुमा पलों की चादर Unbound महीन डोर