किस ख़ता पे रूठे रूठे हुज़ूर मेरे हैं तल्ख़ियों के हमने बस तीर उनके झेले हैं दर्द हिज़्र का जैसे दश्त तप रहा मुझमें रंज के सराबों में अक्स उनके देखे हैं दर-ब-दर भटकते हम नाम उनका बस लेकर ख़ुश्क़ पत्थराए एहसास के ही ढेले हैं मुब्तला मुहब्बत बैठी है सोच में अक्सर सहने को न जाने कितने बचे झमेले हैं अश्क़ बह रहे आँखों से,तू क्या करेगी 'नेहा' खेल ये जुदाई के क़िस्मत ने ही खेलें है। ♥️ मुख्य प्रतियोगिता-1071 #collabwithकोराकाग़ज़ ♥️ इस पोस्ट को हाईलाइट करना न भूलें! 😊 ♥️ दो विजेता होंगे और दोनों विजेताओं की रचनाओं को रोज़ बुके (Rose Bouquet) उपहार स्वरूप दिया जाएगा। ♥️ रचना लिखने के बाद इस पोस्ट पर Done काॅमेंट करें।