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गुस्ताखियां

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गुस्ताखियां

I regret ज़िस्म  की  गिरवीं  इमारत रखी है,
लहू  से  ऐसे भी  इबारत  लिखी है।

वो जिस घर का बँटबारा कर रहें हैं,
हर ईंट में पसीने की सूरत दिखी है।

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गुस्ताखियां

यह जो तासीर है,लबों  पे,वो कमाल  की है, 
बात भी सवाल  तो कभो  बे-सवाल  की है। 

नज़र मिलाने  की औकाद  तो नहीं फिर भी, 
दीदार हो जाये,हुस्न का इतनी मजाल की है। यह जो तासीर है,लबों  पे,वो कमाल  की है, 
बात भी सवाल  तो कभो  बे-सवाल  की है। 

नज़र मिलाने  की औकाद  तो नहीं फिर भी, 
दीदार हो जाये,हुस्न का इतनी मजाल की है।

यह जो तासीर है,लबों पे,वो कमाल की है, बात भी सवाल तो कभो बे-सवाल की है। नज़र मिलाने की औकाद तो नहीं फिर भी, दीदार हो जाये,हुस्न का इतनी मजाल की है।

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गुस्ताखियां

कौन समझे ये कैसी रात है  शायद कोई राज़ की बात है कुछ इस  तरह अपनो से  दूर हो जाता हूँ,
खुद के गुमां में,बदस्तूर कहीं खो जाता हूँ।

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गुस्ताखियां

आज  हवाएं, तूफांन  से  रूबरू  हो जाएंगी,
कश्तियों  की  सभी  बलाएँ  दूर  हो जाएंगी। आज  हवाएं, तूफांन  से  रूबरू  हो जाएंगी,
कश्तियों  की  सभी  बलाएँ  दूर  हो जाएंगी।

आज हवाएं, तूफांन से रूबरू हो जाएंगी, कश्तियों की सभी बलाएँ दूर हो जाएंगी।

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गुस्ताखियां

हसरतें अधूरी तो ख़्वाब भी भरपूर निकले,
सरे गम  मुस्कराना,कितने मजबूर निकले।

अब फासलों  पर भी भरोसा  करें तो कैसे,
जो  पास  थे दिलके  वह बहुत दूर निकले।

अब  यकीं  पर  भी यकीं होता नहीं ,उनके,
फैसले कत्ले दिल के मेरे सब मंज़ूर निकले।

वह  क़ातिल हैं, ज़माने को ख़बर थी,,मगर,
पर हमीं  पाक-ए-नज़र दिले दस्तूर निकले।

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गुस्ताखियां

कुछ नफ़रतें तो कुछ प्यार अच्छा लगा,
आंखों  को तेरा  इंतज़ार  

झूठ बोलकर मोहब्बत करने बाले
सच कहूँ तो तेरा एतबार अच्छा लगा।

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गुस्ताखियां

क्या खता थी हमारी  सवाल था,सवाल है,सवाल ही रहा,

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गुस्ताखियां

यूँ न कुचलो मेरे अरमान की अस्थियां,
लाश   नहीं   साहिब  ज़िन्दा  शरीर  हूँ।

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गुस्ताखियां

ठोंकरें  बुरी  तो लगीं  ज़माने की मगर,
हक़ीक़त यह है कि जीना सिखा दिया। ठोंकरें  बुरी  तो लगीं  ज़माने की मगर,
हक़ीक़त यह है कि जीना सिखा दिया।

ठोंकरें बुरी तो लगीं ज़माने की मगर, हक़ीक़त यह है कि जीना सिखा दिया।

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गुस्ताखियां

सुना  है कि  झूठ  के पर नहीं होते,
लेकिन उड़ता नहीं,अगर नहीं होते।

वही  आंकते  हैं  कम  दूसरों   को, 
जिनके  मुकम्मल  हुनर  नहीं होते।

वही   बसाते    हैं,  घर   दूसरों  के,
जिनके    अपने   घर   नहीं   होते। सुना  है कि  झूठ  के पर नहीं होते,
लेकिन उड़ता नहीं,अगर नहीं होते।

वही  आंकते  हैं  कम  दूसरों   को, 
जिनके  मुकम्मल  हुनर  नहीं होते।

वही   बसाते    हैं,  घर   दूसरों  के,
जिनके    अपने   घर   नहीं   होते।

सुना है कि झूठ के पर नहीं होते, लेकिन उड़ता नहीं,अगर नहीं होते। वही आंकते हैं कम दूसरों को, जिनके मुकम्मल हुनर नहीं होते। वही बसाते हैं, घर दूसरों के, जिनके अपने घर नहीं होते।

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