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shivrajanand7629
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Shivraj Anand

poet &writer

shivrajanand.blogspot.com

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Shivraj Anand





मेरे मुख-मंडल में सिर्फ एक ही बात का मसला लगा रहता है । दिनों-दिन हो रहे दंगा-फसाद, चोरी-डकैती ..जैसे विषयों पर उलझा रहता हूँ आखिर ऐसे लूट पात कब तक चलेंगे ..? ऐसे में क्या हम अपने मंजिल तक पहुँचने में कामयाब हो पाएंगे  ? हम मानते हैं कि प्रत्येक प्राणी प्रकृति से जकड़ा है तब भी उन्हें अपना जीवन जीने में लफडा है क्यों ? क्योंकि हम सबको यह भय है कि हमारे साँसों की डोरिया कब बंद हो जाएगी।

       " मैं देश के हित में जान गुमा दूं ,चेहरे पर काली पट्टी बांध कर नाम बदल दूं  किन्तु अपनी आवाज़ को नहीं बदल सकता...  'ये मेरी आवाज़' देश व समाज में सुरीति लाना चाहती है, एक नया परिवर्तन लाना चाहती है जिससे देश व समाज की संस्कृति कायम रह सके . स्वदेश को एक अखंड देश बनाने के साथ हिमालय के सदृश देश का गौरव  ऊँचा  कर सकें ।

     मेरे  मन की आवाज़ के साथ उन गरीबों की भी आवाज़ है जो सामने कहने से कतराते हैं कह नहीं सकते ... पर मेरा मन ऐसा ही कहता है। ये आवाज आपकी हमसाया बन कर , देश की पहचान बनकर शास्वत (अमर) रहेगी । 

            ऐसा स्वदेश नवनिर्मित होना आकाश में कुशुम नहीं है . अगर प्रथम गुरु ( माता-पीता ) अपने बच्चों को अच्छी सीख दें . मैं कब तक देश की दयनीय दशा देखकर इन आँखों से आंशु बहाऊंगा  ? मैं कब तक देश व समाज के बोझ को कन्धों का सहारा दूंगा . आखिर कब तक ? जब तक मेरी साँसों की डोरियाँ सजेंगी और  ये आँखें दुनिया देखेगी तब तक बस न ।फिर आगे ...। आखिर उन्हें क्या मिलता है . किसी के जिंदगी के साथ मौत का खेल खेलने में ? बस देश व समाज की तौहीन .. और  क्या ? ऐसे ही भाव  मन में लाकर खोया रहता हूँ । मुझे नींद नहीं आती ...क्या हमारा जीवन इन कर्मों से महान होगा ? गर हमारे मन ,वचन और आचरण  पवित्र न हो।

        ' हमे अपना आचरण बदलना होगा और ऐसे आचरण रूपी ढाल को अपनाना होगा जिससे देश व समाज के संस्कृति की रक्षा हो सके । अंततः मेरी आशा है की एक दिन मेरे "मन की आवाज़" उनके मष्तिष्क में घडी सी घूमेगी अवश्य ।तब उनका ह्रदय भावुक होगा। एक दिन उनके भी ' दिन फिरेंगे ' तो भविष्य का सृजन करेंगे ।एक दिन जरुर ममत्व जागृत होगी ।तब मैं अपने दिल की नगरी में कह सकूंगा – “ईश्वर  की कृपा से सब कुशल है” ।

©Shivraj Anand मेरी आवाज़

मेरी आवाज़ #समाज

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Shivraj Anand

प्यारे  तुम मुझे भी अपना लो ।
गुमराह हूं  कोई राह बता दो।
युं ना छोडो एकाकी अभिमन्यु सा रण पे।
मुझे भी साथले चलो मानवताकी डगर पे।।
वहां बडे सतवादी है।
सत्य -अहिंसाकेपुजारी हैं।।
वे रावण के  अत्याचार को  मिटा देते हैं।
हो गर हाहाकार तो सिमटा देते है।।
इस पथ मे कोई जंजीर नही
                   जो बांधकर जकड सके।
पथ मे कोई विध्न नही
                      जो रोककर अ क ड सके।।
है ऐ मानवता की डगर निराली।
जीत ले जो प्रेम वही खिलाडी।।
यहां मजहब न भेदभाव,सर्व धर्म समभाव से जिया ...है।
वक्त आए तो हस के जहर पीया करते है।।
फिर तो स्वर्ग यहीं है नर्क यहीं है।
मानव मानव ही है  सोच का फर्क है।।
ओ  प्यारे !इस राह से हम न हो किनारे ...
न हताश हो न निराश हो।
मन मे आश व विश्वास हो।।
फिर आओ जग मे जीकर
              जीवन -ज्योत जला दे।

सुख-शांति के नगर को स्वर्ग सा सजा दे।।
आज भी राम है कण - कण मे
भारत - भारती के जन जन को बता दे।

©Shivraj Anand मानवता के डगर पर

मानवता के डगर पर #कविता

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Shivraj Anand

         (मनुष्यों को अपने हृदय की सु बुद्धि से दीपशिखा जलाने चाहिए।उन्हे इक दुसरे के मध्य भेदभाव डालकर मौजमस्ती नही करनी चाहिए।मौजमस्ती दो पल की भूल है उनके कुबुद्धि का फल शूल है) 

      इस प्रकृति के 'विशद -अंक 'मे कलिकाल की संसृति का "श्री गणेश" होता है जहां सुख आने पर आनंद  सुखित हो जाती है वही दुख आने पर सुप्त- व्यथा जागृत होती है उसी प्रकृति के विशद अंक मे एक छोटा-सा  गांव है -दामन पुर ।जो चारो ओर नदी यों से घिरा हुआ है।कहीं - कहीं खुले मैदान हैं तो किसानों की चांद तोडने जैसी काम भी है।लोग अपनी - अपनी संस्कृति से जुड ने का प्रयत्न कर रहे है।वहीं पथ के किनारे आम्र - पीपल के द्रुत लगे हुए हैं जिससे शीतल समीर बह रहा है और प्यारे अभिन्न निमग्न हो रहे हैं।वहां के अधिकांश ग्रामीण अल्प ज्ञ है ।वे किसी को ठेस लगाकर नही,अपितु खुन -पसीना बहाकर अपना जीविका चलाते है ।वे अपने काम के आगे भगवान को स्मरण करना भूल जाते है परेशानी सहन कर सकते है किन्तु पराजित नही।

      उसी गांव मे दानि क राम और भोजराम नामक दो भाई निवास करते है।वे भाई तो दोनों एक है परन्तु स्वभाव एक नही पराई चीजों पर आंखें गाढाना बडे भाई दानि क राम का पेशा है लालच ने उन्हे अंधा बना दिया है मानो कुबेर का धन पाकर भी सन्तोष नही और बगैर सन्तोष के लालच का नाश कहां? हां छोटे भाई भोजराम शील - स्वभाव के है।उन्हे दुनिया की लालच नही है सिर्फ दो बख्त की रोटी पर भरोसा है वे लक्ष्मण के चरण चिन्ह पर चलने वाले हैं।उनके भीतर बङे भाई के प्रति सेवा व समर्पण के भाव है ।तभी तो वे दानि क राम के हर उड़ती तीर को झेलते रहे पर उन्हे क्या जो राम न होकर एक प्रपं ची ठहरे..।

      असल मे दानि क राम अपने आप को छोटे भाई भोजराम की अपेक्षा ज्यादा समृद्ध और सम्पन्न समझते है परन्तु उससे ज्यादा उनका अहंकार है। वे नित्य रामायण का पाठ भी करते है तब भी त्रिशूल के उस महान सिद्धांत को भूल ही जाते है जिसमे लिखा है-सत वचन बोलना चाहिए।सत्य कर्म और सत्य विचार से रहना चाहिए।हां वे इस सिद्धांत को पढते जरूर है किन्तु अपने ।हकीकत कि दुनिया मे नही उतार सकते।वे दुनिया के श्रेष्ठ ग्रंथो में एक  'श्रीराम चरित्र मानस 'मे यह भी पढते है कि "भाई की भुजा भाई  ही होता है।" फिर उसी भाई वैमनस्यता किसलिए?तू- तू ,मैं - मैं क्यों ?

      माना कि दानि क राम के पास वैभव -वस्ती विपुल है पर प्रलय की अपेक्षा जीवन तो वि थु र ही है फिर ऐसा अहंकार क्यों मानो प्रलय के बाद भी जीवन का नाश नही होगा। दानिक राम के अहंकार रुपी दीमक ने छोटे भाई के प्रेम- भाव रुपी मखमल को चट् लिया है जो यह समझ नही पा रहे हैं कि छोटे भाई भोजराम के झोपड़ी में अपनों का प्यार और दुसरों का आदर भी है।वे गुरुर के आखों से संसार को देखते है कि मेरे पास क्या नही है? सबकुछ तो है और उसके पास टूटी -फुटी झोपड़ी जिसमें भी खाने -पीने की तेरह -बाईस।वह तो भुख के मार से मारा -मारा फिरता है। सायद बडे भाई दानिक राम को संसार की वास्तविकता का ठीक -ठीक बोध नही है कि इस संसार मे राजाओं का राज हो या धनवानों का धन सब क्षणिक होता है।फिर गर्व किसलिए? 

         वे आधी खोपड़ी के जाहिल व्यक्ति हैं जो साधारण से जिन्दगी को लेकर ऊंच -नीच के कार्य करते हैं कभी किसी कि जिल्लत करते हैं तो कभी किसी पर इल्जाम लगाते हैं किन्तु जब इन कर्मो के परिणाम समीप आते हैं तो वे चल नही सकते या जैसे -जैसे उनके जीवन की अंतिम घडी यां आने लगती हैं उनकी जीवन के हर कर्म बोलने लगती हैं। 

        दानिक राम के दो पुत्र हैं कार्तिकेश्वर व अचिन्त कुमार ।कार्तिकेश्वर एक शराबी है जबकि अचिन्त कुमार सिविल कोर्ट दामन पुर का मशहूर वकील है उसकी नीति अलग सी है -'वह सत्य का घोर विरोधी है।'उनकी पत्नी अपाहिज है वह पति- प्रपंच के आगे परेशान  है तब भी तन -मन -धन से पति के चरणों मे प्रेम करती है।वह एक धर्म- पत्नी होने के नाते यह जानती है कि दान और तीर्थ से बढकर भी पति की सेवा है। एक दिन अनायास कार्तिकेश्वर शराब के नशे मे मदमस्त होकर अपने काका भोजराम को मारने दौडा.. अब भोजराम क्या करते?वे भागते -भागते पुलिस थाने जा पहुंचे।पुलिस आरक्षक ने देखते ही भोजराम को सलाम किया।क्योंकि वे गांधी टोपी व कुर्ता पहने हुए थे।तत्पश्चात पुलिस ने कार्तिकेश्वर को दो हाथ लगाते हुए कारावास मे डाल दिया।मानों दानिक राम के पहाड़ से अहंकार को एक सबक मिल गया हो।लेकिन फूंक से पहाड कहां उडने वाला?

        ( कुछ दिनों बाद ) जब वह जेल खाना से बाहर आया तो पुन:वही बर्ताव करने लगा.आखिर कब तक?एक दिन दानि क राम के आंखो से गुरुर का चश्मा उतर गया।अब उनके पास गुरुर के चश्मे को पहनने के लिए आंखें नहीं रही ।अचानक वकील अचिन्त कुमार दुनिया से चल बसा! उन्हे जिस धन -दौलत गर्व था उसी धन -दौलत ने उनका साथ छोड दिया।फिर पैसा -पैसा किसलिए?क्या पैसों से यमराज ने वकील  अचिन्त कुमार का जान बख्शा?नहीं न।वे कल के कुकर्मो से आने वाले कल को खो दिए।

     जगत के जंजाल मे आकर दानिकराम अपने पुत्र वकील  अचिन्त कुमार को बांध लिए थे किन्तु अपने अहंकार को नही।इस जगत के 'जंजाल' मे आकर अहंकार को नहीं,अपितु उस राम -नाम को भज ना चाहिए जिनका नाम 'अनइच्छित ही अपवर्ग निसेही है।'फिर अहंकार किसलिए? मायाजाल और मोहनी मे फंसने के लिए ।

 प्रकृति के बिश द अंक मे कलिकाल की संसृति(भव, जन्म - मरण )का जय श्रीराम होता है।

©Shivraj Anand जगत का जंजाल -संसृति

जगत का जंजाल -संसृति #समाज

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Shivraj Anand



       सतयुग, त्रेता न द्वापर के,

                हम कलयुग के प्राणी  हैं।

     हम- सा प्राणी हैं किस युग में ? 

              हम अधम देह धारी हैं। 

      हमारा युग तोप-तलवार 

                  जन-विद्रोह का है। 

  सामंजस्य-शांति का नहीं 

                   भेद-संघर्ष का है। 

     हमने सदियों  '' बसुधैव  कुटुंबकम '' 

                               की भावना छोड़ दिया।
       और कलि  के द्वेष पाखंड से 

                       नाता जोड़ लिया। 

     हम काम क्रोध में कुटिल हैं,  

                      परधन परनारी निंदा में लीन हैं। 

     हम दुर्गुणों के समुन्द्र  में 

               कु-बुद्धि के कामी हैं।

    सतयुग त्रेता न द्वापर के 

            हम कलयुग के प्राणी  हैं। 

     हमारा हस्त खुनी पंजे का है

              वे हमसे भिन्न स्वतंत्र रह पाएंगे ?

     जब सजेगा सूर बम धमाकों का 

           तब क्या मृत उन मृत के लघु गीत गाएंगे ?   

 हमें तुम्हारे नारद की वीणा अलापते नहीं लगती 

    हमे तुम्हारे मोहन की मुरली सुनाई नहीं देती।

     तुम कहते हो हमे  अबंधन  जीने दो।
अन्न जल सर्व प्रकृत का, आनंद रस पीने दो।
  नहीं हम ही इस कलिकाल में सुबुद्धि के प्राणी हैं।

सतयुग,त्रेता न द्वापर के ''हम  कलयुग के प्राणी  हैं।''

©Shivraj Anand हम कलियुग के प्राणी हैं

हम कलियुग के प्राणी हैं #पौराणिककथा

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Shivraj Anand



बेवफा ! अपनों के लिए ...
     ओ ' धन्य ' जिसने आंख बन्द होते हुए भी दुनिया के  हसीन  नजारों को  देख लिया था .
         सात  सुरों के  संगीत  को  अपने  सांसो  मे  बसा  लिया था पर उसके  असल जिंदगी का  अंजाम क्या  हुआ? जो  नम्रता  के  साथ  प्यार - वयार  के चक्कर में  था भूल गया था कि ऐसेे  रेत का महल  बनाने से  क्या फायदा  जो   खुद  -ब- खुद  टूट  के  बिखर  जाये .उसे एहसास  ही नही  था कि  एक दिन   नम्रता  उससे  दूर ...दूर  दुनिया  मे गुम  हो  जायेगी . आखिर  ऐसा  क्या  हुआ  उसके   साथ?
            हैलो,  नम्रता  कैसी हो ...?
                              धन्य  ने  तार के  सहारे  पुछा .पढाई  के  सिलसिले  मे  नम्रता  शहर  गयी  हुई  थी.
         मै  बिल्कुल  ठीक  हूं धन्य .मेरी पढाई जैसे  ही  पूरी  होगी  मै  तुुम्हारे पास आ जााऊंगी ...जवाब देती  हुई  नम्रता  बोली.
 'तो कब  आ रही हो नम्रता?   तुम बिन  मुझे कुछ भी  अच्छा नही लगता  ...धन्य  ने कहा.
      मैं क्या करुं धन्य ..तुमसे  दूर  तो जाना मै  भी  नही   चाहती  थी पर... नम्रता  बोली .
  मैं सच  कह  रहा हूं नम्रता  हर पल  हर घडी   मुझे  तेरी ही याद  आती है  और  मैं उन  यादों से बेहाल हो  जाता हूं.
  हां, नम्रता  तेरे जाने के बाद  मेरी  जिन्दगी वीरान  सी लगती है .एक पल भी  सुकून  नही  मिलता
...सिर्फ  और सिर्फ बेचैनी .कुछ ऐसे ही  बेताबी के आलम मे धन्य  ने कहा.
      बचपन  मे  दोनों  ही  एक साथ एक  ही स्कूल  में पढाई किये  थे तब से  दोनो  एक दुसरे  से प्यार करने   लगे.और धन्य  भी  नम्रता  को अपना  मानने लगा. धन्य  नम्रता  के बिना अपने आप को एकान्त  महसूस  करने  लगा .अब तुम आ भी  जाओ  नम्रता ...तेरे  आने से मेरे उजड़े जिन्दगी  मे फिर से  बहार   आ जायेगी.अब और मुझसे  रहा जाता...बेताबी  के आलम मे धन्य ने कहा .
           असल बात  धन्य  और नम्रता  कक्षा  6 वी से एक  ही विधालय मे पढते थे.दोनों की  गहरी दोस्ती  हो गई .  किसी  पार्टी  या  समारोह  में साथ -साथ  आने -जाने  लगे .जब ये सारी बात  नम्रता  के  पिता को  मालुम  हुआ  कि मेरी तीन -पांच मे आगे  है  अगर  उसे  दो -चार  लगा  दुंगा  तो कही नौ दो ग्यारह  ना हो जाए .इस  लिए  उन्होंने मतंग पुर के राज निहित  के लडके  से नम्रता  की शादी  तय कर दी . धन्य  नम्रता  को लेकर  न जाने कितने  सपने  संजोता . उन दोनो  का तार के  सहारे  ही  बात  होता था.फिरसे एक दिन  धन्य  तार के सहारे पुछा  कि जब तुम  मुझसे  इतना  बेइंतहा  प्यार  करती हो तो क्यों नही मेेेर  पास आ जाती ...और हमारे बीच  के  दूरि यो  को मिटा  देती. तुम  फिक्र  मत करो धन्य  मेरी पढाई जैसे ही पूरी होगी मै आजाऊॅगी. क्या  करुं  मुझे  भी  यहां एक पल अच्छा  नही लगता है  फिरभी  दिल के जख्मों  को  सी सी कर जी  रही हूं. नम्रता बोली .

         धन्य  ' अमीर  खान  की तरह  स्मार्ट  था. वह  हाथ मे चूड़ा और  टी- शर्ट आदि  पहनने का शौकीन  था . हर रोज सुबह     और शाम  आईने  के  साथ   काटता .एक दिन  हसी -खुशी  के  साथ  मस्त  माहौल  मे  बैैठकर  नम्रता  के साथ  गुजारे पलों  को याद  कर रहा था  कि वे भी कोई  दिन थे  जब  हम पहली बार किसी  पार्टी  मे मिले थे  लाल शूट पहने  मुझे  नम्रता भा गई थी .मुझे  ऐसा लग रहा था कि  मै ही  नम्रता  का  सच्चा  प्रेमी हूं. तभी  अचानक  फोन की घंटी बजी ...फोन  था  नम्रता  का.धन्य ने  फोन  उठाया  ..बोला  कैसे  नम्रता?  आ रही  हो न ?मै  बस तुम्हारा  ही इन्तजार  कर रहा हूं .क्या तुम  बिना बताए आकर के मुझे  सरप्राइज  देना चाहती हो ,  मै सब जानता हूं.धन्य और कुछ  कहता  इससे  पहले  की फोन कट चुकी थी फिर फोन  की घंटी  बजी ... इधर से धन्य  फोन  उठाते  ही पहले  जैसा  दुहराया ...बोला  -क्या हुआ  नम्रता  सब ठीक  तो है?  मगर  उधर से  जवाब  सुनते ही  धन्य सन्न रह गया वही  गिर पडा .   मानो उसके  चमकती  जिंदगी  मे अंधेरा छा  गया हो . ये तुने क्या  किया  नम्रता?  तुम  तो कहती थी हमारे  प्यार  के रंग  कभी नही  छुटेंगे...हमारे  रिश्ते  अटूट  है कभी  नही  टुटेंगे. क्या  तेरा ओ वादा ...ओ इरादा  सिर्फ  झूठे प्यार  का सौदा  था? ऐ दुनिया  वालो इस दुनिया  मे  अब  प्रेम ,प्रेम  नही  रहा  ...इक धोखा  बन गया है .जिसे अपना समझो वही  पराया हो जाता है .उन्होंने  तो  बङी  आसानी से कह दिया  ' आई हैट  यू '...  एक पल के लिए भी नही  सोचा  कि  हमारे   ऐसा  कहने से  उनके नाजुक  दिल पर  क्या  गुजरेगी? अब   हम किसके लिए इस जहां मे जीयेें ? तुने  क्योंकि  बेवफाई  नम्रता?  किसके लिए .. ?"अपनों के लिए ".खैर अब इन बातों से हमें क्या  लेना -देना  ?लेना देना  है  तो  अपने  सार्थक  सांसो  से ...जो  जीवन  जीने  की कला  सीखा   सके .

©Shivraj Anand बेवफा अपनों के लिए

बेवफा अपनों के लिए #लव

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Shivraj Anand

  (बाधाएं और कठिनाइयां हमें कभी रोकती नहीं है अपितु मजबूत बनाती है)

  लफ़्ज़ों से कैसे कहूं कि मेरे जीवन की सोच क्या थीं? आखिर  मैने भी सोचा था कि पुलिस बनूंगा, डाॅ बनूंगा किसी की सहायता करके ऊॅचा नाम कमाऊंगा पर नाम कमाने की दूर... जिन्दगी ऐसे लडखङा गई  जैसे  शीशे  का  टुकङा  गिर  पड़ा  हो  फर्क  इतना  सा  हो  गया   जितना  सा  जीव  - व  निर्जीव   मे  होता  है । मै  क्युं  निष्फल  हुआ ? 

      हाॅ मैं जिस कार्य को करता था  उसमें  सफल होने  की आशा नही करता  था मेहनत  लग्न से जी -चुराता था इसलिए  मेरे  सोच पर पानी फेर  आया । गुड़ गोबर हो गया।अगर  मैने  मेहनत  लग्न  से  जी  - लगाया होता  तो किसी  भी  मंजिल  पा सकता  था  ऊंचा  नाम  कमा था। अभी  भी  मेरे  मन  में कसक होती  है।' जब  वे  लम्हें  याद  आते  हैं और  दिल  के   टुकड़े-टुकड़े कर  जाते हैं। कि काश,  मैं उस दौर में समय की  कीमत  को  जाना और  समझा  होता : जिस  समय   को  युंही  खेल -  कुद ,  मौज- मस्ती  मे  लुटा   दिया । बहरहाल,  'अब  मै  गङे  है  मुर्दे  उखाङकर  दिल  को  ठेस  नही  लगाऊंगा.. वरन्  उन  दिलों  नव -नीव डालकर  भविष्य   का  सृजन  करुंगा ।'

            हाॅ ,मै  अल्पज्ञ  हूं। किंतु इतना  साक्षर  भी  हूं  कि  अच्छे   और   बुरे  व्यक्ति की पहचान  कर सकूं।उन  दोनों  की  तस्वीर  समाज के  सामने   खींच   सकूं । फिर  यह कह सकूं  कि ' सत्यवान  की  सोच  में और बुरे इंसान की सोच  मे जमीं   व आसमां से भी अधिक  अन्तर होता  है  चाहे  क्यों ना एक - दुजे का मिलन  होता हो मत -भेद जरुर होता  है।
            उन  दोनों  की  ख्वाहिश  अलग  सी  होती  है ख्वाबों  में  पृथक -पृथक  इरादें लाते हैं ।सु - कृत्य और कु-कृत्य।सु कृत्यों मे जो स्थान  किसी कि सहायता करना ,भुले -भटके  को वापस लाना या ये कहें कि ऐसे सुकर्म जिनका फल सुखद होता है किन्तु वहीं  कु  कृत्य करने वाले  कि सोच किसी कि जिल्लत करना , किसी पर इल्लजाम लगाना अशोभनीय और निंदनीय जैसे  कर्मो  से  होता है  

        सभी  कर्मो का इतिहास  'कर्म साक्षी'  है। फिर     कैसे    राजा लंकेश  के कपट -कर्म  और मन के    कलुषित - भाव ने  उसके  साथ   समुचे लंका का पतन कर डाला।'माना कि झुठ के आड़ से किसी  की जिंदगी  सलामत हो जाती  है तो उस वक्त  के  लिए  झूठ  बोलना सौ -सौ सत्य  के समान है। परंतु निष्प्रयोजन मिथ्यात्व क्यों? फिर तो इस संसार में सत्य और  सत्यवान की भी परीक्षा हुई है और सार्थक सोच की शक्ति ने विजय पाई है।'

  'महापुरुष  हो  या  साधारण सभी परिवारीक  स्थित मे गमगीन  होकर विषम परिस्थितियों में खोए  रहते  है । कहने का तात्पर्य  है कि सम्पूर्ण  ' 'जीवन  की  सोच ' सत्कर्म  मे होना चाहिए ।
         मै तो यह नही कह सकता कि सोच करने  से सदा आप  सफल हो जाएंगे किन्तु  मेहनत   लग्न  और विश्वास  से रहे  तो एक  दिन चाॅद - तारे  भी
तोड लाऐंग ।

       कहीं  आप भी  ऐसा कार्य न कर बैठे कि पीछे  आपको  आठ- आठ आंसू  रोना  पडे।आज मुझे  मालूम  हुआ  कि  जीवन  की  सोच कैसी होनी चाहिये । मै  तो असफल  हुआ।ओंठ  चाटने  पर  मेरी  प्यास नही बुझी ।लेकिन  आप ज्ञानवान  हैं सोच  समझकर  कार्य करें ।आत्मविश्वास से मन  की एकाग्रता  से  नही तो  आपको  भी आठ आठ आंसू  रोने पड़ेंगे ।

©Shivraj Anand जीवन की सोच

जीवन की सोच #जानकारी

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Shivraj Anand

प्रेम-जगत १

       प्रेम जगत संसार का रंगमंच

 है  और  हम सभी  इस रंगमंच  के पात्र।)

विज्ञो का मत है की आदि मानव ने प्रेम की आदिम आग की उष्णता से सृस्टि  की रचना की 'आदम और हौवा या ,मनु और शतरूपा ने बाव संवेदन धड़कते प्रेम भावना के लिए स्वर्ग के संवेदन हित आनदं रस को नही अपितु जगत के कठोर जीवन को अपनाया |

      ओ- ढोलमारो , लैला  मजनू , रोमिओ -जुलियर ,हीर -राँझा , की प्रेम कथाये तो यही रेखांकित करती है की प्रेम ही जीवन का सार है, प्रेम विहीन जगत वीरान है| इसी प्रेम के वशीभूत (जगत बनाने वाले ) माता (प्रकृति) व पिता (पुरुष) जगत का निर्माण किया । अतः उन्हें मेरा सहस्त्रो बार प्रणाम ! 

परिवारिक सुख आकाश में घटाओ के सदृस होता है| सुख उत्पन्न होता है पर चिर कल तक स्थिर नही होता उन घटाओ के सदृश ही छिप  जाता है 

     'वर्षो से मेरे आँगन में एक अंगना नही जिससे मेरी आँगन  सुनी है । 'ऐसा ही विचार  कर 'मनीलाल  ' अपने पुत्र (मधुसूदन ) क विवाह कर रहे है । असलबात मधुसूदन जब १० वर्ष का था, तब उसकी 'जन्म जननी' दुनिया से चल बसी । वह माँ की ममता को न पा सका- माँ की ममता उसके लिए आसमान के कुसुम हो गई ।

'

  मनीलाल' मंजोलगढ़ के एक ईमानदार पुरुष है । वे सबको एक आँख से देखते है । पत्नी मृत्यु के बाद उनके आंखों से खून उतर आता - है बस याद आती ... कमर तोड़ जाती । बस उसी के याद को भुलाने और दुःख के आंसु को सुख में बदलने के लिए ही वे अपने पुत्र का विवाह कर रहे है ।

मधुसूदन का विवाह सुमन के साथ हो रहा है । 'सुमन' एक सजिली लड़की है । वह विदितनारायण की पुत्री है । 'विदित नारायण' भले व नेक इंसान है ।वे प्रेमगढ़ के सकुशल व्याक्ति हैं । आखिर एक दिन मधुसूदन की बारात प्रेमगढ़ के लिए निकल पड़ती है और लोगो की इंतजार की घड़िया ख़त्म हो जाती है ।

           प्रेमगढ़ एक  मनभावन नगर है। , किन्तु मधुसूदन की बारात ने उस नगर की ओर सजा  दिया है उस जन -संकुल नगर में अति चहल -पहल है । मधुसूदन के  माथ पर सुन्दर सेहरा है । जिससे मधुसूदन अति प्रसन्नचित है । वहां का विशद ए नूर अनुपम है । धरती के आसमा तक शहनाइओ  की ध्वनि गूंज रही है , तारे गण  आकाश में टिमटिमा रहे हैैं मानों सबके  खुशीयों में झूम रहे हों । (कुछ देर बाद)  पुरोहित द्वारा शिव ,गौरी व गणेश जी की पूजा कराइ जा रही है । वहीं सुहागिन स्त्रियों    मंगल गान गा  रही हैं । जिससे  आये सभी ऐ कुटुम्ब जन आनंदित हो रहे हैं। (धीरे- धीरे द्वार  चार  की रीति- रस्म पूर्ण हो जाती है) वही एक सुंदर जनवासा है जिसमे आये सभी बारातियों की मंडली क्रमशः बैठी है । उन सबकी नज़र (सामने) दूल्हे और दुल्हन पर एक टक लगी है । वे सब उनके मुस्कान भरे चेहरे को देखकर बरबस ही मोहित हो रहे हैं। ख़ैर सुंदरता  किसे नही मोहित कर लेती ।

         आज 'सुमन'   बारहों भूषणो से सजी है । उसके  पैरों में नुपुर के साथ किंकिनि है । उसके 



हाथों में कंगन के साथ चुड़िया  हैं। उसके गले में कण्ठश्री  है । बाहों में बसेर बिरिया के साथ बाजूबंद है ।  माथे  पर सुन्दर टिका के साथ शीस में शीस फूल है । उसे देख कर ऐसा लग रहा मानो 'सुमन' नंदन की परी हो..... जो श्रृंगार- रस और सौंदर्य का  मिलन हुआ है |

         अब प्रभात की सुमधुर बेल में सुमन व मधुसूदन सात फेरो के पवित्र बंधन में बध रहे हैैं ।उनके इस बंधन के साक्षी अग्निदेव है । वहीं अपने कुलानुसार लाई -परछन और नेक चार  का रीती रस्म पूर्ण होता है । हालाँकि  सुमन के अपने कोई भाई नहीं है तब भी मंगला नाम का ब्यक्ति अपने आप को सौभाग्य जान कर अपने हाथो से सुन्दर संबध जना रहा है । मानो सीता जी के लिए पृथ्वी  का पुत्र मंगल गृह आया हो। शनैः शनै विदाई की पुनीत घड़ी आन पड़ी है । जहा पूजनीय पिता विदित नारायण के पांव न उठ रहे है और न ही टस से मस हो रहे हैं । वहीं दूसरी ओर माँ सुनैना की ममता टूट कर बिखर पड़ी है । 

       प्रेम - जगत का प्रेम ही अजूबा है जब सुमन अपने पति के गले में वरमाला  डाल रही थी तब सब की आखे एक टक हो कर उसकी ओर देख रही थीं। परन्तु अब सबकी आखे नम है । किसी के मुख से कुछ भी शब्द निकलते  नहीं बनता मानो सौंदर्य ने श्रृंगार- रस छोड़ कर शांत_  रस को अपना लिया हो । जो सुमन कल तक अपने साथी  सहेलियों की प्रिया थी एक बाबुल की गुड़िया थी। . बाबुल की प्रीत रुपी बाहों में झूलकर कली से सुमन बनी आज वही सुमन बाबुल की प्रीत में मुरझाकर बिदा हो रही है । खैर सुमन को बगैर मुरझाये बहारों का सुख कहा मिलेगा ? जब तक इस जगत में प्रेम रहेगा... तब तक सुमन को बहारों का सुख मिलता रहेगा ।चंद लम्हों के बाद विदितनरायण अपने दिल के टूकड को बिदा कर देते है। सुमन आंखों ही आंखों में देखते - देखते प्रेमांगन से दूर चली जाती है ।

         प्रेम -जगत २

मनीलाल कृत- कृत्य हो गए , उनके जो वर्षो की सुनी आँगन में' सुमन 'का जो आगमन हुआ । इस जगत में प्रेम भी  अपने वेष को बदलता रहता है । जो मनीलाल कल तक लोगों की सलामती चाहते थे वही मनीलाल अनायास ही परलोक सिधार गए। सारा सुख दुःखों  में बदल गया जहा मधुसूदन की जिंदगी चांदनी रात के समान चमक रही थी अब वही  खौफनाक  अंधेरा सिर्फ अंधेरा …अब तो मधुसूदन के ऊपर पहाड़ सा टूट पड़ा। अगर उसके मन में खुशी होता तो रात अंधेरा भी दीप्त सा लहक पड़ता किन्तु  चांदनी रातों में दुखों का साया पड़ जाये तो उसे कौन रोशन करेगा ? वहीं मधुसूदन बिलख-बिलख कर रो रहा है। वहा आये सज्जन विमन है। उन्हें मधुसूदन का रोना अच्छा नही लगता तो वे कह उठते हैं - मत रो मधुसूदन ! मत रो जो होनहारी है सो तो होगा ही ... किसी का भी संयोग से मिलन होता है और बियोग से बिछड़ना। हां मधुसूदन ये जिंदगी रोने के लिए नही है ।जीवन का प्रवाह जैसा बहता है तूं बहनें दे ।किन्तु तू मत रो रोना जगत के लिए पाप है । मरना सौ जन्मों के बराबर है जो की अंतिम सच है । यह रोने की घड़ी नही है। तुमने  बाल्य काल में जिन कंधो को हाथी, घोडा और पालकी बना कर अपार आनद उठाया था न ,आज तुम्हें उन्हीं कंधो के मोल को अदा करना है इसलिए तुम भी अपने पिता (मनीलाल) को कन्धा दो ।

         मणिलाल  के परलोक सिधारते ही घर की आर्थिक स्थिति दुरुस्त नही  रही ।जहा मधुसूधन ऐसो आराम की जिंदगी जी रहा था अब वही  पहाड़ खोद  -खोद कर चुहिया निकालने लगा । जिससे प्रेम -जाल में बंधे पत्नी (सुमन) और पुत्र  का पेट पल सके । 

         आखिर एक दिन मधुसूदन घर की स्थिति को दुरुस्त करने के लिए घर से निकल गया बहुत दूर... ।वह जान से प्यारे पुत्र को ममत्व के छाव छोड़ गया जहाँ माँ( सुमन )की ममता आपार थी और पुनीत गोद विशाल ।'

ईश्वर की लीला बड़ी विचित्र है । जब मधुसूदन २ वर्ष तक घर नही आया तब सुमन नयन - जल लिए विलापती - ओह देव ! क्या ' मेरे पति देव जगत में कुशल भी है या उनसे मेरा नाता तोड़ दिया ? वह एक तरफ स्तम्भित हो कर भगवान को दोष देती वहीं दूसरी ओर अनुसूया जैसे पतिव्रता नारी धर्म का पालन भी करती।

पर उसे मालूम नही की इस संसार में कोई किसी को दुःख देने वाला नही है । सब अपने  ही  कर्मो का  फल है ।   

       सुमन  चार दिवारी के बाहर विवर्ण मुख निम्न मुख किये बैठी है । उसकी आंखें नम है व केस विच्छिन्न । जिससे फेस ढका है । सूर्य की लालिमा उसके तन पर पड़ रहे हैं तब भी वह दुखों की काली सागर में डूबी जा रही है मानो उस अबला के लिए तड़पना ही  उसका सफर बन गया हो। वह जैसे पति प्रतिक्षा में बिकल है वैसे ही प्रकृति भी अपने अनमोल छटा से विचल है । वह बारम बार विधाता को दोष देती और कहती - हाँ ,देव !  तूं सच-सच बता.. तूने मेरे ख्वाबों इरादों को पत्थर तो नही बना दिया ? क्या सूर्य के बिना दिन और चंदमा के बिना रात शोभा पा  सकते है ? नही न... फिर मै अपने पति के बिना कैसे शोभा पा सकती हूं ? क्या तुझे एक दूजे की जुदाई का तजुर्बा नही... अगर नही, तो इस  " प्रेम - जगत "में 'आ' और के  देख ... तेरे बनाये इस कठोर धरती पर तेरा ये मिट्टी का खिलौना (पुतला) एक प्रेम के लिए कितना अधीर है । कि  'कास हमें मुठ्ठी भर प्रेम मिल जाता तो हमारे इस मिटटी के खिलौने में जान आ जाता … । आगे  वह कहने लगी -'अब दिन फिरेंगे' तो जी भर के देखूँगी ।' हां देव !अब विलम्ब न कर ...उन्हें घर के चौखट तक ला दे । ये तुमसे मेरी आर्तनाद है और एक दुहाई भी।' हां लोगो को यह भ्रम है  कि मैंने अपने पति  (मधुसूदन )को घर से तू -तू ,मै -मै कर और मुह फुलाकर निकाल  दिया है।पर तुम तो सर्वज्ञ हो तुम्हें मालूम है कि "मै उन्हें सप्रेम गले मिलाकर  किस्मत बनाने और जिंदगी  सवारने के लिए भेजा है।

             अतः ये आखे उनकी प्रतीक्षा में कब से राह सजाये खड़ी है । अंततः एक दिन मधुसूदन बीते हुए मौसम की तरह अपने पत्नी सुमन के पास लौट आया  और पति से गले लगते ही  सुमन झूम उठी मानो बहारों के आने पर मुरझाई कली खिल रही हो ।

     मधुसूदन हंसते हुए पूछा- क्या हुआ सुमन ? तूम इतनी बेचैन क्यों हो ? क्या मै इस  प्रेम -जगत में आकर सचमुच खो गया था ? अगर हां मै खो गया  था तो क्या मेरा प्रेम भी इस जगत से खो गया था ? इन  सवालो के ज़वाब सुमन न दे सकी और अपने बहारों में महकने लगी ।

©Shivraj Anand प्रेम -जगत

प्रेम -जगत #लव

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Shivraj Anand





जिनके दिल टूटे हैं चलते कदम थमे हैं,

वो जीना जानते हैं ।

ना  जख्मों को सीना जानते हैं ।।

तुम उन्हें भी अपना लो ।प्यारे तुम

मेरी बात मान विश्व बंधुत्व का भाव लेकर,

जन- जन से बैर भाव छोड दो ।

"यहा उनका भी दिल जोड़ दो"।।

              हम सब के ओ प्यारे,

किस कदर हैं दूर किनारे।

           जीत की  भी 

         क्या आस रखते हैं मन मारे ?

                 ये मन मैले नहीं निर्मल हैं,

सबल न सही निर्बल हैं,

समझते हैं हम जिन्हें नीचे हैं,

वे कदम दो कदम ही पीछे हैं,

जो हिला दे उन्हें ऐसी आंधी का रुख मोड़ दो ।

यहाँ उनका भी दिल  जोड़ दो ।।

दिल बिना क्या यह महफ़िल है,

क्या जीने के सपने हैं,

बेगाना कोई नहीं सब अपने हैं.

ये सब मन के अनुभव हैं,

नहीं हूँ अभी वो, पहले मैं था जो,

सुना था मैंने मरना ही दुखद है,

पर देखा लालसाओं के साथ जीना,

महा दुखद है.

फिर क्या है सुख ?

क्या जीवन सार ?

सुख है सब के हितार्थ में,

जीवन - सार है अपनत्व में,

ऐसा अपनत्व जो एक दूजे का दिल जोड़ दे ।

कोई गुमनाम न हो नाम जोड़ दे ।।

वरना सब असार है चोला,

सब राम रोला भई सब राम रोला ।।

©Shivraj Anand यहां उनका भी दिल जोड़ दो

यहां उनका भी दिल जोड़ दो #कविता

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Shivraj Anand




            मेरे जीने की आस जिंदगी से कोसो दूर चली गयी थी  कि अब मेरा कौन है ? मैं किसके लिए अपना आँचल पसारुंगा ? पर देखा-लोक-लोचन में असीम वेदना। तब मेरा ह्रदय मर्मान्तक हो गया , फिर मुझे ख्याल आया कि अब मुझे जीना होगा , हाँ अपने स्वार्थ के लिए न सही ,परमार्थ के लिए ही ।

     मैं ज़माने का निकृष्ट था तब देखा उस सूर्य को कि वह निःस्वार्थ भाव से कालिमा में लालिमा फैला रहा है तो क्यों न मैं भी उसके सदृश बनूं ।भलामानुष वन सुप्त मनुष्यत्व  को जागृत करुं। मैं शैने-शैने सदमानुष के आँखों से देखा-लोग असहा दर्द से विकल है उनपर ग़मों व दर्दों का पहाड़ टूट पड़ा है और चक्षुजल ही जलधि बन पड़ी हैं  फिर तो मैं एक पल के लिए विस्मित 

हो गया । मेरा कलेजा मुंह को आने लगा।परन्तु दुसरे क्षण वही कलेजा ठंडा होता गया और मैंने  चक्षुजल से बने जलधि को रोक दिया ।क्योंकि तब तक मैं भी दुनिया का एक अंश बन गया था । जब तक मेरी सांसें चली.. तब तक मैं उनके लिए आँचल पसारा

किन्तु अब मेरी साँसे लड़खड़ाने लगी हैं , जो मैंने उठाए थे ग़मों व दर्दों के पहाड़ से भार को वह पुनः गिरने लगा है ।

         अतः  हे भाई !अब मैं उनके लिए तुम्हारे पास ,  आस  लेकर आँचल पसारता हूँ ... और कहता हूँ तुम उन अंधों के आँख बन जाओ ,तुम उन लंगड़ों के पैर बन जाओ और  जियो 'उनके लिए' . क्या तुम उनके लिए जी सकोगे ? या तुम भी उन जन्मान्धों के सदृश काम (वासना) में अंधे बने रहोगे ?

     राष्ट्रिय कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –

' जीना तो है उसी का , 

                   जिसने यह राज़ जाना है।

है काम आदमी का , 

            औरों के काम आना है ।।

©Shivraj Anand जियो उनके लिए

जियो उनके लिए #समाज


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