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anshulpal5760
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Anshul Pal

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Anshul Pal

उसकी  कुछ  यादें  सुहानी  रह  गई,
भूले  से   शायद   मिटानी   रह  गई।
                       अब न  मरहम  मेरे  ज़ख्मों  पे लगा,
                       बस यही  उसकी  निशानी  रह  गई।
जान  देने   की   वो  बातें   इश्क़  में,
अब तो  बातों  की  कहानी  रह गई।
                     जो कभी  अंजाम तक  पहुँची  नहीं,
                     दास्तां   वो   ही   सुनानी   रह   गई।
मैं हूँ  सहरा  और  इक  दरिया  है तू,
मुख़्तलिफ़  अपनी  रवानी  रह  गई।
                         दिल की  बातें  नज़रों  से  करते  रहे,
                        बस   जुबां  से  ही  बतानी  रह  गई।
राज़  उल्फ़त  का छुपा  सबसे लिया,
भूल  से   खुशबू   छुपानी   रह  गई।
                            ज़िन्दगी    को    आज़माया    बारहा,
                            मौत  ही  अब   आज़मानी   रह  गई।
उससे ही थी  वक़्त की हर शय जवां,
बाद  उसके  उम्र- ए -फ़ानी  रह  गई।
                           इश्क़ में ख़ुद को फ़ना जब कर लिया,
                        और  क्या   रस्में   निभानी  रह   गई।
रूठना फिर मान  जाना ख़ुद ही 'रण',
हुस्न  में   ये  लत   सयानी   रह  गई।

©Anshul Pal दोस्तों अगर आपको मेरी ग़ज़ल पसंद आये तो like ,comment और share अवश्य कीजिये

दोस्तों अगर आपको मेरी ग़ज़ल पसंद आये तो like ,comment और share अवश्य कीजिये #Shayari

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Anshul Pal

पेश-ए-नज़र है मेरी नई ग़ज़ल

अजब सी धुन मिली  है ज़िन्दगी के  साज़ में मुझको,
दिखाई  दे  रहा  हर   राज़  इसके   राज़  में  मुझको।

गली  में  यार  की  जब  से  मुड़ा  नादान  सा ये  दिल,
तभी से  दिख  गया  अंजाम  ही  आगाज़ में  मुझको।

जहां  को  अब  कदर  मेरी  नहीं  पर  है  यकीं  इतना,
कि मुद्दत  बाद   ढूँढेगा  हर इक  अल्फ़ाज़ में  मुझको।

कदम बढ़ते न अपने फिर तो जानम हिज़्र की जानिब,
बुलाते   दर्द   से   भीगी  अगर   आवाज़  में   मुझको।

न ज़ाहिर  गैरों पे होता  ये किस्सा अपनी  उल्फ़त का,
जो शामिल कर लिया होता  सनम हमराज़ में मुझको।

वो  छू  लेगा  यकीनन  आसमां  पर  चाहें  हों  घायल,
ग़ज़ब  जज़्बा   नुमायाँ  हो  रहा  परवाज़  में  मुझको।

भरी  आँखें जुबां  खामोश  सूखे  लब थे  उसके 'रण',
विदा वो कह  गया यूँ  मुख़्तलिफ़  अंदाज़ में  मुझको।


अंशुल पाल 'रण'
जीरकपुर (पंजाब)

©Anshul Pal
  #alone
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Anshul Pal

पेश-ए-नज़र है मेरी नई ग़ज़ल

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शाम-ए-ग़म  में  तेरी  तनहाइयाँ  ओढ़  लेता हूँ।
हिज़्र  में  लिपटी  मैं  खामोशियाँ ओढ़  लेता हूँ।

सर्द  पड़ने  लगे  जब तेरी  यादों का  मौसम तो,
जलते एहसासों की  फिर गर्मियाँ ओढ़ लेता हूँ।

हर बशर  ने जहां में  रंग गिरगिट सा  ओढ़ा पर,
मैं  तो  मासूम  रंगीं   तितलियाँ  ओढ़  लेता  हूँ।

साथ में भीगने का तब मज़ा कुछ अलग सा था,
अब तो दो  बूंदों में ही  छतरियाँ ओढ़  लेता  हूँ।

ज़िन्दगी को क़ज़ा की बाहों में देखकर फिर तो,
क़ब्रों  पर मैं  सजी वो  तख्तियाँ  ओढ़  लेता हूँ।

जाता  जब भी  मेरा किरदार  औकात  से बाहर,
फिर बुज़ुर्गों की अपने झिड़कियाँ ओढ़ लेता हूँ।

देखता हूँ मैं जब भी  सिलवटें अपने बिस्तर की,
तन्हा  रातों  में  तेरी  सिसकियाँ  ओढ़  लेता हूँ।

तरबियत  ऐसी  बख़्शी  है  ख़ुदा  ने  मुझे  यारों,
हँस के सब ज़िन्दगी की तल्खियाँ ओढ़ लेता हूँ।

इस कदर डर समाया दिल में तूफां का मेरे 'रण',
अब तो साहिल पे ही  मैं कश्तियाँ ओढ़ लेता हूँ।

अंशुल पाल 'रण'
जीरकपुर (मोहाली)
पंजाब

©Anshul Pal
  दोस्तों पेश-ए-नज़र है मेरी नई ग़ज़ल

दोस्तों पेश-ए-नज़र है मेरी नई ग़ज़ल #Shayari

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Anshul Pal

ग़ज़ल

आज उसका ख़त मिला और तो कुछ भी नहीं,
थोड़ा सा ये  दिल दुखा और  तो कुछ भी नहीं।

दोस्तों के हाथों में जब दिखा खंज़र तो मैं,
था रक़ीबों से ख़फ़ा और तो कुछ भी नहीं।

चाहे चारासाज़ों को जितना भी तुम लो बुला,
दर्द की वो ही दवा और तो कुछ भी नहीं।

रु-ए-ताबां देखकर इतना ही जाना फ़क़त,
बस निग़ाहों को सज़ा और तो कुछ भी नहीं।

बेदिली दुनिया में यां बेमुरव्वत शक्स भी,
चाहता है बस वफ़ा और तो कुछ भी नहीं।

हाल-ए-दिल कुछ यूँ बयाँ हो गया के ख़त पे बस,
चार अश्क़ों के सिवा और तो कुछ भी नहीं।

मैंने कब चाहा वो चाहे मुझे मेरी तरह,
बस वो दिख जाए ज़रा और तो कुछ भी नहीं।

चल रही साँसें मगर ज़िन्दगी ये थम गई,
हिज़्र की ऐसी सज़ा और तो कुछ भी नहीं।

दूर होकर भी न थी दूरियाँ जब दरमियाँ,
पास होकर फासला और तो कुछ भी नहीं।

इश्क़ है मुझसे ये मालूम गैरों से हुआ,
है फ़क़त इतना गिला और तो कुछ भी नहीं।

मैंने माँगे थे कहाँ चाँद-ओ-तारे कभी,
वो मिले मुझको ख़ुदा और तो कुछ भी नहीं।

इत्तफाकन सच बयाँ हो गया महफ़िल में 'रण'',
इतनी सी अपनी ख़ता और तो कुछ भी नहीं।

पूर्णतया स्वरचित ,स्वप्रमाणित,मौलिक रचना,सर्वाधिकार सुरक्षित

अंशुल पाल 'रण'
जीरकपुर (मोहाली)

©Anshul Pal
  अगर आपको ग़ज़ल अच्छी लगे तो शेयर और लाइक और फॉलो करके मेरी हौसला अफजाई अवश्य करें,🙏🙏🙏

अगर आपको ग़ज़ल अच्छी लगे तो शेयर और लाइक और फॉलो करके मेरी हौसला अफजाई अवश्य करें,🙏🙏🙏 #Shayari

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Anshul Pal

घूर  के   देखे  कोई  ये   मज़ाल   कहाँ,
सोच में भी  सोचे बुरा वो  ख़याल कहाँ।
अखंड  भारत  अखंड  ही  रहेगा  सदा-
सारे जहां में 'रण' इसकी मिसाल कहाँ।।


                          अंशुल पाल 'रण'

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Anshul Pal

मुहब्बत  का  ऐसा   सिला  भी   मिलेगा,
मेरे  दिल  को ग़म  का पता  भी मिलेगा।

कभी  गौर  से  उसकी  आँखों  में  देखो,
तुझे   खुल्द   का   रास्ता   भी   मिलेगा।

दिलों  में   ही  जब   हो  गई   दूरियाँ  तो,
यहाँ   रिश्तों  में   फासला  भी   मिलेगा।

यही  सोचकर   लौट  पाया  न  फिर  मैं,
न जाने  वो दर  अब  खुला  भी मिलेगा।

मैं   हैरान   था  बज़्म   में   बातिलों  की,
वो इक  शख़्स सच बोलता  भी मिलेगा।

कभी झाँको तो अपने दिल में बशर तुम,
वहाँ   कोई   बच्चा   छुपा  भी   मिलेगा।

गुनाहों   की   मेरे   मुआफ़ी   जो  दे  दे,
न   मालूम   ऐसा   ख़ुदा   भी   मिलेगा।

तुझे   रँग   बदलते   जहाँ   में   ये  इंसां,
भला   भी  मिलेगा   बुरा  भी   मिलेगा।

वो  सूखे  लबों  की  लकीरों  में  तुमको,
छुपा दिल का  'रण' माजरा भी मिलेगा।

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Anshul Pal

पेश है एक शे'र

मैं   हैरान  था   बज़्म  में  बातिलों  की,
वो इक शख़्स सच बोलता भी मिलेगा।

अंशुल पाल 'रण'
जीरकपुर,मोहाली

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Anshul Pal

इस  ज़िन्दगी  को कामयाबी , से मिला दे  तू ज़रा ।
सोये   हुए  अपने  इरादों , को  जगा   दे  तू  ज़रा।।

मन के अँधेरों  को मिटाकर , देख तो  अपनी  डगर,
चट्टान  जैसे   हौसले  रख , बाज  जैसी  कर  नजर,
अनजान  राहों  को उजालों , से  सजा  दे  तू  ज़रा।
सोये   हुए  अपने  इरादों , को  जगा   दे  तू  ज़रा।।

दुश्मन  करे  जो वार  तो खुद , को बना  तलवार तू,
जब  सामना  हो मुश्किलों से , ढाल बन  हर बार तू,
आँखें मिलाकर  मौत को भी , अब डरा  दे तू ज़रा।
सोये   हुए  अपने  इरादों , को  जगा   दे  तू  ज़रा।।

हिम्मत  अगर  तूफान  सी  हो , रोकता  कोई  नहीं,
जब  कोशिशें  फौलाद  सी हों , टोकता  कोई  नहीं,
अब जीत को  अपना पता फिर, से बता  दे तू ज़रा।
सोये   हुए  अपने  इरादों , को  जगा   दे  तू  ज़रा।।

इस  ज़िन्दगी  को कामयाबी , से मिला दे  तू ज़रा ।
सोये   हुए  अपने  इरादों , को  जगा   दे  तू  ज़रा।।

अंशुल पाल 'रण'

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Anshul Pal

रेत  हाथों  से  पल-पल  फिसलती  रही,
जिस्म   को   जैसे   मेरे   निगलती  रही।

जम गया सारा  मंज़र ये जब  वक़्त का,
ज़िन्दगी   बर्फ़  सी  क्यूँ  पिघलती  रही।

हम   नज़ारों    में   मशगूल    होते   रहे,
पर  फ़िज़ा   रंग  अपना   बदलती  रही।

लाख समझाया  मुझको किसी  ने बशर,
राह-ए-उल्फ़त सभी को ही छलती रही।

साहिलों   को   भला   कैसे   मालूम  हो,
लहरें  मिलने  को  उससे  मचलती  रही।

शम्स  आया  था आकर  चला  भी  गया,
ये शमा  रात भर  फिर भी  जलती  रही।

'रण'  ने चाहा  बहुत  इसको  रोकें  मगर,
शाम   के  जैसे   ये   उम्र   ढलती   रही।

अंशुल पाल 'रण'

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Anshul Pal

रुख पे  अपने अब  ये चिलमन  रहने दो,
तुम   रकीबों   में  ये   उलझन  रहने  दो।
                                                      ज़िन्दगी  बन   जाएगी   जन्नत  ये   फिर,
                                                     खुद में  जिंदा  अपना  बचपन  रहने  दो।
दिल  तो  तुमने  कब  का  मेरा ले  लिया,
कम से कम ज़ालिम ये धड़कन रहने दो।
                                                       चाहिए    तुमको    हवा - ओ - धूप   गर,
                                                      कुछ  तो  खाली घर  में  आँगन रहने दो।
छोड़   दे   तू   काटना   अब  तो  शजर,
पास    पंछी    के   नशेमन    रहने   दो।
                                                       मिट्टी  के   कच्चे   से   चूल्हे   पर   बना,
                                                       मेरा   वो   पाकीज़ा   भोजन   रहने  दो।
हीरे  मोती   क्या   मैं   जाँ  भी   वार  दूँ,
पाक  माँ  का  तुम  ये  दामन  रहने  दो।
                                                         देख  लेगा  खुद  सितमगर  आके  फिर,
                                                         तुम  मेरा  जलता  वो  सावन  रहने  दो।
क्या  सभी  से   दोस्ती  कर  लोगे  'रण',
शहर  में  कुछ  अपने  दुश्मन  रहने दो।

                                             अंशुल पाल 'रण'                      '

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