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rahul4755890161014
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विद्यार्थी राहुल

Flee not change the world

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विद्यार्थी राहुल

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है।
न ईश्वर,न ज्ञान,न चुनाव!
कागज पर लिखी कोई भी इबारत फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर गाड़ी जा सकती है।

जो विवेक,खड़ा हो लाशों को टेक वह अंधा है,
जो शासन चल रहा हो बंदूक की नली से हत्यारों का धंधा है।
यदि तुम यह नहीं मानते तो मुझे अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।

याद रखो!
एक बच्चे की हत्या,एक औरत की मौत
एक आदमी का गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।

ऐसा खून बहकर,धरती में जज्ब नहीं होता,
आकाश में फहराते झंडों को काला करता है।
जिस धरती पर फौजी बूटों के निशान हों 
और उन पर लाशें गिर रही हों,
वह धरती यदि तुम्हारे खून में आग बन कर नहीं दौड़ती,
तो समझ लो तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार।
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।

आखिरी बात बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को कभी मत करो माफ,
चाहे हो वह तुम्हारा यार,धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का स्वनामधन्य पहरेदार।

●सर्वेश्वर दयाल सक्सेना #lifeafterdeath
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विद्यार्थी राहुल

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए!
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए!

हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी!

क़त्ल हुए जज्बातों की क़सम खाकर,
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर,
हाथों पर पड़े घट्टों की क़सम खाकर,
हम लड़ेंगे साथी!

हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का मूत पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता!
हम लड़ेंगे साथी!

✍️अवतार सिंह संधु 'पाश'
(9 सितंबर 1950-23मार्च 1988) #पाश
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विद्यार्थी राहुल

मैं घास हूँ!
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा!

बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर,
बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर,
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर,

मेरा क्‍या करोगे?
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा!

बंगे को ढेर कर दो,
संगरूर मिटा डालो,
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला,
मेरी हरियाली अपना काम करेगी...
दो साल... दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है!

मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूँगा!
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा!

●अवतार सिंह 'पाश'
(9 सितंबर 1950- 23 मार्च 1988)
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विद्यार्थी राहुल

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है,
सबसे ख़तरनाक नहीं होता!

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना,
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना!

✍️अवतार सिंह पाश
(9सितंबर 1950-23मार्च 1988)
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विद्यार्थी राहुल

अब विदा लेता हूँ
मेरी दोस्त! मैं अब विदा लेता हूँ!

मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं,
उस कविता में
महकते हुए धनिए का ज़िक्र होना था!
ईख की सरसराहट का ज़िक्र होना था!
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का 
ज़िक्र होना था और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सब कुछ का ज़िक्र होना था!
उस कविता में मेरे हाथों की सख़्ती को मुस्कुराना था!
मेरी जाँघों की मछलियों को तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और ज़िन्दगी के सभी रिश्तों के लिए 
बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त!
मैं अब विदा लेता हूं!

✍️अवतार सिंह सिंधु 'पाश' #पाश

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विद्यार्थी राहुल

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के!
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के!

कह रही है झोपडी औ' पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के!

बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं ये जानकर,
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के!

कफ़न बाँधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है,
ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गाँव के!

हर रुकावट चीख़ती है ठोकरों की मार से,
बेडि़याँ खनका रहे हैं लोग मेरे गाँव के!

दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंक़लाब,
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के!

एकता से बल मिला है झोपड़ी की साँस को,
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के !

तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में,
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव में !

देख 'बल्ली' जो सुबह फीकी दिखे है आजकल,
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के!

● बल्ली सिंह चीमा #dawn

11 Love

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विद्यार्थी राहुल

तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो!
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो!

ख़ुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है ज़िन्दगी,
रेंग कर मर-मर कर जीना ही नहीं है ज़िन्दगी,
कुछ करो कि ज़िन्दगी की डोर न कमज़ोर हो!
तय करो किस ओर हो तुम,तय करो किस ओर हो!

खोलो आँखें फँस न जाना तुम सुनहरे जाल में,
भेड़िए भी घूमते हैं आदमी की खाल में,
ज़िन्दगी का गीत हो या मौत का कोई शोर हो!
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो!

सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओर हो!
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो!

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो!
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो!
●बल्ली सिंह चीमा #protest

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विद्यार्थी राहुल

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ!

एक जंगल है तेरी आँखों में,
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ!

तू किसी रेल-सी गुज़रती है,
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ!

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है,
मैं अगर रौशनी में आता हूँ!

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे,
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ!

मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ

● दुष्यंत कुमार #reading

10 Love

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विद्यार्थी राहुल

इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और,
या इसमें रौशनी का करो इन्तज़ाम और!

आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे,
हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और!

मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है,
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और!

घुटनों पे रख के हाथ खड़े थे नमाज़ में,
आ—जा रहे थे लोग ज़ेहन में तमाम और!

हमने भी पहली बार चखी तो बुरी लगी,
कड़वी तुम्हें लगेगी मगर एक जाम और!

हैराँ थे अपने अक्स पे घर के तमाम लोग,
शीशा चटख़ गया तो हुआ एक काम और!

उनका कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा,
हमको तो मिल गया है अदब में मुकाम और!

●दुष्यंत कुमार
(1 सितंबर 1933-30 दिसंबर 1975) #NightPath
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विद्यार्थी राहुल

इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और,
या इसमें रौशनी का करो इन्तज़ाम और!

आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे,
हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और!

मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है,
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और!

घुटनों पे रख के हाथ खड़े थे नमाज़ में,
आ—जा रहे थे लोग ज़ेहन में तमाम और!

हमने भी पहली बार चखी तो बुरी लगी,
कड़वी तुम्हें लगेगी मगर एक जाम और!

हैराँ थे अपने अक्स पे घर के तमाम लोग,
शीशा चटख़ गया तो हुआ एक काम और!

उनका कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा,
हमको तो मिल गया है अदब में मुकाम और!

●दुष्यंत कुमार
(1 सितंबर 1933-30 दिसंबर 1975) #NightPath
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