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jitendrakumarsom2011
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Jitendra Kumar Som

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Jitendra Kumar Som

परमात्मा और किसान

एक बार एक  किसान परमात्मा से बड़ा नाराज हो गया ! कभी बाढ़ आ जाये, कभी सूखा पड़ जाए, कभी धूप बहुत तेज हो जाए तो कभी ओले पड़ जाये! हर बार कुछ ना कुछ कारण से उसकी फसल थोड़ी ख़राब हो जाये! एक  दिन बड़ा तंग आ कर उसने परमात्मा से कहा ,देखिये प्रभु,आप परमात्मा हैं , लेकिन लगता है आपको खेती बाड़ी की ज्यादा जानकारी नहीं है ,एक प्रार्थना है कि एक साल मुझे मौका दीजिये , जैसा मै चाहू वैसा मौसम हो,फिर आप देखना मै कैसे अन्न के भण्डार भर दूंगा! परमात्मा मुस्कुराये और कहा ठीक है, जैसा तुम कहोगे वैसा ही मौसम  दूंगा, मै दखल नहीं करूँगा!

किसान ने गेहूं की फ़सल बोई ,जब धूप  चाही ,तब धूप  मिली, जब पानी तब पानी ! तेज धूप, ओले,बाढ़ ,आंधी तो उसने आने ही नहीं दी, समय के साथ फसल बढ़ी और किसान की ख़ुशी भी,क्योंकि ऐसी फसल तो आज तक नहीं हुई  थी !  किसान ने मन ही मन सोचा अब पता चलेगा परमात्मा को, की फ़सल कैसे करते हैं ,बेकार ही इतने बरस हम किसानो को परेशान करते रहे.

फ़सल काटने का समय भी आया ,किसान बड़े गर्व से फ़सल काटने गया, लेकिन जैसे ही फसल काटने लगा ,एकदम से छाती पर हाथ रख कर बैठ गया!  गेहूं की एक भी बाली के अन्दर गेहूं नहीं था ,सारी बालियाँ अन्दर से खाली थी,  बड़ा दुखी होकर उसने परमात्मा से कहा ,प्रभु  ये  क्या हुआ ?

तब परमात्मा बोले,” ये तो होना ही था  ,तुमने पौधों  को संघर्ष का ज़रा  सा  भी मौका नहीं दिया . ना तेज  धूप में उनको तपने दिया , ना आंधी ओलों से जूझने दिया ,उनको  किसी प्रकार की चुनौती  का अहसास जरा भी नहीं होने दिया , इसीलिए सब पौधे खोखले रह गए, जब आंधी आती है, तेज बारिश होती है ओले गिरते हैं तब पोधा अपने बल से ही खड़ा रहता है, वो अपना अस्तित्व बचाने का संघर्ष करता है और इस संघर्ष से जो बल पैदा होता है वोही उसे शक्ति देता है ,उर्जा देता है, उसकी जीवटता को उभारता है.सोने को भी कुंदन बनने के लिए आग में तपने , हथौड़ी  से पिटने,गलने जैसी चुनोतियो से गुजरना पड़ता है तभी उसकी स्वर्णिम आभा उभरती है,उसे अनमोल बनाती है !”

उसी तरह जिंदगी में भी अगर संघर्ष ना हो ,चुनौती  ना हो तो आदमी खोखला  ही रह जाता है, उसके अन्दर कोई गुण नहीं आ पाता ! ये चुनोतियाँ  ही हैं जो आदमी रूपी तलवार को धार देती हैं ,उसे सशक्त और प्रखर बनाती हैं, अगर प्रतिभाशाली बनना है तो चुनोतियाँ  तो स्वीकार करनी ही पड़ेंगी, अन्यथा हम खोखले ही रह जायेंगे.  अगर जिंदगी में प्रखर बनना है,प्रतिभाशाली बनना है ,तो संघर्ष और चुनोतियो का सामना तो करना ही पड़ेगा !

©Jitendra Kumar Som
  # परमात्मा और किसान

# परमात्मा और किसान #ज़िन्दगी

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Jitendra Kumar Som

धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का

एक बार कक्षा दस की हिंदी शिक्षिका अपने छात्र को मुहावरे सिखा रही थी। तभी कक्षा एक मुहावरे पर आ पहुँची “धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का ”, इसका अर्थ किसी भी छात्र को समझ नहीं आ रहा था। इसीलिए अपने छात्र को और अच्छी तरह से समझाने के लिए शिक्षिका ने अपने छात्र को एक कहानी के रूप में उदाहरण देना उचित समझा।

उन्होंने अपने छात्र को कहानी कहना शुरू किया, ” कई साल पहले सज्जनपुर नामक नगर में राजू नाम का लड़का रहता था, वह एक बहुत ही अच्छा क्रिकेटर था। वह इतना अच्छा खिलाड़ी था कि उसमे भारतीय क्रिकेट टीम में होने की क्षमता थी। वह क्रिकेट तो खेलता पर उसे दूसरो के कामों में दखल अन्दाजी करना बहुत पसंद था। उसका मन दृढ़ नहीं था जो दूसरे लोग करते थे वह वही करता था। यह देखकर उसकी माँ ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की कि यह आदत उसे जीवन में कितनी भारी पड़ सकती है पर वह नहीं समझा। समय बीतता गया और उसका अपने काम के बजाय दूसरो के काम में दखल अन्दाजी करने की आदत ज्यादा हो गयी। जभी उससे क्रिकेट का अभ्यास होता था तभी उसके दूसरे दोस्तों को अलग खेलो का अभ्यास रहता था। उसका मन चंचल होने के कारण वह क्रिकेट के अभ्यास के लिए नहीं जाता था बल्कि दूसरे दोस्तों के साथ अन्य अलग-अलग खेल खेलने जाता था।

उसकी यह आदत उसका आगे बहुत ही भारी पड़ी, कुछ ही दिनों के बाद नगर में ऐलान किया गया नगर में सभी खेलों के लिए एक चयन होगा जिसमे जो भी चुना जाएगा उसे भारत के राष्ट्रीय दल में खेलने को मिल सकता है। सभी यह सुनकर बहुत ही खुश हुए ओर वहीं दिन से सभी अपने खेल में चुनने के लिए जी-जान से मेहनत करने लगे, सभी के पास सिर्फ दो दिन थे। राजू ने भी अपना अभ्यास शुरू किया पर पिछले कुछ दिनों से अपने खेल के अभ्यास में जाने की बजाय दूसरो के खेल के अभ्यास में जाने के कारण उसने अपने शानदार फॉर्म खो दिया था। दो दिन के बाद चयन का समय आया राजू ने खूब कोशिश की पर अभ्यास की कमी के कारण वह अपना शानदार प्रदर्शन नहीं दिखा पाया और उसका चयन नहीं हुआ, वह दूसरे खेलों में भी चयन न हुआ क्योंकि व़े सब खेल उसे सिर्फ थोड़ा आते थे ओर किसी भी खेल में वह माहिर नहीं था। जिसके कारण वह कोई भी खेल में चयन नहीं हुआ और उसके जो सभी दूसरे दोस्त थे उनका कोई न कोई खेल में चयन हो गया क्योंकि वे दिन रात मेहनत करते थे।अंत में राजू को अपने सिर पर हाथ रखकर बैठना पड़ा और वह धोबी के कुत्ते की तरह बन गया जो न घर का होता है न घाट का।”

इसी तरह इस कहानी के माध्यम से सभी बच्चों को इस मुहावरे का मतलब पता चल गया। शिक्षिका को अपने छात्रों को एक ही सन्देश पहुँचाना था कि व़े जीवन में जो कुछ भी करे सिर्फ उसी में ध्यान दे और दूसरो से विचिलित न हो वरना वह धोबी के कुत्ते की तरह बन जाएगे जो न घर का न घाट का होता है।

©Jitendra Kumar Som
  #walkingalone धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का

#walkingalone धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का #प्रेरक

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Jitendra Kumar Som

उत्साह' हमें जिंदादिल बनाए रखता है

अमरीका में जीवन बीमा के विक्रय क्षेत्र में सार्वाधिक ख्याति प्राप्त फ्रैंक बैजर अपने व्यवसाय के आरंभिक काल में असफल हो चुके थे और उन्होंने अपने बीमा कंपनी के पद से पद से इस्तीफा देने का निर्णय ले लिया था। एक दिन वे इस्तीफा लेकर कार्यालय पहुंच गए। उस समय प्रबंधक महोदय अपने विक्रेताओं की बैठक को संबोधित कर रहे थे। बैजर प्रबंधक-कक्ष के बाहर प्रतीक्षा करने लगे। अंदर से आवाज आई- 'मैं जानता हूं कि आप सभी योग्य विक्रेता हैं, किंतु आप यह विशेष ध्यान रखें कि योग्यता से भी अधिक महत्वपूर्ण है उत्साह, आपका जोश, जीवन की ऊर्जा, जो मंजिल की दिशा में आपकी सहायता करती है। आपका उत्साह, आपकी उमंग ही आपको सफलता के शिखर पर पहुंचा सकता है।'

इन शब्दों को सुनकर बैजर ने अपना निर्णय बदल दिया और जेब में रखे इस्तीफे को उसी समय फाड़ दिया। वे फौरन अपने घर चले गए। दूसरे दिन से फ्रैंक बैजर ने अपने काम को बड़े उत्साह के साथ करना शुरू किया। उनके उत्साह से ग्राहक इतने प्रभावित हुए कि कुछ वर्षों में वे अमरीका के नंबर वन सेल्समैन बन गए।

निष्कर्ष:

उत्साही जीवन के संघर्ष में धन की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि धन के बार-बार नष्ट हो जाने पर भी व्यक्ति उसे पैदा कर लेता है। उत्साह वह अग्नि है जो हमारे शरीर रूपी इंजन के लिए भाप तैयार करती है।

©Jitendra Kumar Som
  # उत्साह' हमें जिंदादिल बनाए रखता है

# उत्साह' हमें जिंदादिल बनाए रखता है #जानकारी

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Jitendra Kumar Som

भिखारी का आत्मसम्मान

एक भिखारी किसी स्टेशन पर पेँसिलोँ से भरा कटोरा लेकर बैठा हुआ था। एक युवा व्यवसायी उधर से गुजरा और उसनेँ कटोरे मेँ 50 रूपये डाल दिया, लेकिन उसनेँ कोई पेँसिल नहीँ ली। उसके बाद वह ट्रेन मेँ बैठ गया। डिब्बे का दरवाजा बंद होने ही वाला था कि अधिकारी एकाएक ट्रेन से उतर कर भिखारी के पास लौटा और कुछ पेँसिल उठा कर बोला, “मैँ कुछ पेँसिल लूँगा। इन पेँसिलोँ की कीमत है, आखिरकार तुम एक व्यापारी हो और मैँ भी।” उसके बाद वह युवा तेजी से ट्रेन मेँ चढ़ गया।

कुछ वर्षों बाद, वह व्यवसायी एक पार्टी मेँ गया। वह भिखारी भी वहाँ मौजूद था। भिखारी नेँ उस व्यवसायी को देखते ही

पहचान लिया, वह उसके पास जाकर बोला-” आप शायद मुझे नहीँ पहचान रहे है, लेकिन मैँ आपको पहचानता हूँ।”

उसके बाद उसनेँ उसके साथ घटी उस घटना का जिक्र किया। व्यवसायी नेँ कहा-” तुम्हारे याद दिलानेँ पर मुझे याद आ रहा है कि तुम भीख मांग रहे थे। लेकिन तुम यहाँ सूट और टाई मेँ क्या कर रहे हो?”

भिखारी नेँ जवाब दिया, ” आपको शायद मालूम नहीँ है कि आपनेँ मेरे लिए उस दिन क्या किया। मुझे पर दया करने की बजाय मेरे साथ सम्मान के साथ पेश आये। आपनेँ कटोरे से पेँसिल उठाकर कहा, इनकी कीमत है, आखिरकार तुम भी एक व्यापारी हो और मैँ भी।

आपके जानेँ के बाद मैँने बहूत सोचा, मैँ यहाँ क्या कर रहा हूँ? मैँ भीख क्योँ माँग रहा हूँ? मैनेँ अपनीँ जिँदगी को सँवारनेँ के लिये कुछ अच्छा काम करनेँ का फैसला लिया। मैनेँ अपना थैला उठाया और घूम-घूम कर पेंसिल बेचने लगा । फिर धीरे -धीरे मेरा व्यापार बढ़ता गया , मैं कॉपी – किताब एवं अन्य चीजें भी बेचने लगा और आज पूरे शहर में मैं इन चीजों का सबसे बड़ा थोक विक्रेता हूँ।

मुझे मेरा सम्मान लौटानेँ के लिये मैँ आपका तहेदिल से धन्यवाद देता हूँ क्योँकि उस घटना नेँ आज मेरा जीवन ही बदल दिया ।”

Friends, आप अपनेँ बारे मेँ क्या सोचते है? खुद के लिये आप क्या राय स्वयँ पर जाहिर करते हैँ? क्या आप अपनेँ आपको ठीक तरह से समझ पाते हैँ? इन सारी चीजोँ को ही हम indirect रूप से आत्मसम्मान कहते हैँ। दुसरे लोग हमारे बारे मेँ क्या सोचते हैँ ये बाते उतनी मायनेँ नहीँ रखती या कहेँ तो कुछ भी मायनेँ नहीँ रखती लेकिन आप अपनेँ बारे मेँ क्या राय जाहिर करते हैँ, क्या सोचते हैँ ये बात बहूत ही ज्यादा मायनेँ रखती है। लेकिन एक बात तय है कि हम अपनेँ बारे मेँ जो भी सोँचते हैँ, उसका एहसास जानेँ अनजानेँ मेँ दुसरोँ को भी करा ही देते हैँ और इसमेँ कोई भी शक नहीँ कि इसी कारण की वजह से दूसरे लोग भी हमारे साथ उसी ढंग से पेश आते हैँ।

याद रखेँ कि आत्म-सम्मान की वजह से ही हमारे अंदर प्रेरणा पैदा होती है या कहेँ तो हम आत्मप्रेरित होते हैँ। इसलिए आवश्यक है कि हम अपनेँ बारे मेँ एक श्रेष्ठ राय बनाएं और आत्मसम्मान से पूर्ण जीवन जीएं।

©Jitendra Kumar Som
  # भिखारी का आत्मसम्मान

# भिखारी का आत्मसम्मान #ज़िन्दगी

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Jitendra Kumar Som

जीवन का सत्य – जियो तो हर पल ऐसे जियो जैसे कि आखिरी हो

रमेश की दिल्ली में एक छोटी सी दुकान थी। उसी दुकान में रमेश साइबर कैफे चलाता था। रमेश की शादी को अब 10 साल पूरे हो चुके थे, साथ ही एक बच्चा भी था लेकिन जिंदगी में अब पहले जैसी रौनक नहीं थी। सुबह उठो, बस लग जाओ पैसे कमाने में। जिंदगी अब बहुत व्यस्त हो चली थी।

एक दिन रमेश जब दुकान पर गया तो सोचा कि आज मैं शाम को थोड़ा जल्दी घर जाऊँगा। रोजाना रमेश 10 बजे दुकान बंद करता था लेकिन आज 7 बजे ही दुकान बंद करके चल दिया। मन में सोच रहा था कि आज पत्नी से खूब बातें करूँगा फिर खाना खाने बाहर जायेंगे थोड़ा मन भी बहल जायेगा।

रमेश जब घर पहुँचा तो श्रीमति उनको देखकर बड़ी खुश हुईं। उस समय श्रीमती टीवी पर एक सीरियल देख रही थीं। रमेश ने सोचा कि जब तक ये सीरियल खत्म हो, क्यों ना कम्प्यूटर पर मेल चेक कर लिए जाएँ। बस यही सोचकर रमेश कम्प्यूटर खोल कर बैठ गया, थोड़ी ही देर में श्रीमति ने टेबल पर ही चाय भी ला दी। रमेश चाय पीता हुआ दुकान का कुछ काम करने लगा। मन में बहुत ख़ुशी थी कि अभी थोड़ी देर में बीवी से बात करूँगा और खाना खाने बाहर जायेंगे।

टेबल पर काम करते करते समय का पता ही नहीं चला और 8 से 11 बज गए। श्रीमती ने सोचा कि पतिदेव भूखे होंगे तो टेबल पर ही खाना भी लगा दिया। रमेश ने जब घड़ी में 11 बजते देखा तो सोचा चलो खाना खा लेते हैं फिर थोड़ी देर नीचे पार्क में घूमने चलेंगे।

खाना खाते रहे इसी बीच एक मजेदार सीरियल आने लगा बस रमेश थोड़ी देर सीरियल देखने लगा और सीरियल में ऐसा खोया कि वहीँ सोफे पर ही सो गया। अचानक थोड़ी देर में आँखें खुलीं तो आधी रात हो चुकी थी। श्रीमती भी बैडरूम में आराम से सो चुकी थीं।

मन में बहुत ज्यादा अफ़सोस हुआ कि मैं क्या सोच के आया था कि आज गपशप करेंगे और खाना खाने बाहर चलेंगे लेकिन समय ही नहीं मिला।

दोस्तों हमारी भागदौड़ भरी जिंदगी भी कुछ ऐसी ही हो चुकी है। हम सुबह उठते हैं और बस लग जाते हैं जिंदगी की दौड़ में, थोड़े पैसे कमाने हैं, भविष्य को बेहतर बनाना है। वो भविष्य जो कभी आता ही नहीं है, हम आज भी वर्तमान में जी रहे हैं और कल भी वर्तमान में ही जीएंगे। केवल यही समय हमारे पास है जिसमें हम अपनी जिंदगी को बेहतर बना सकते हैं। ना बीते समय पर आपका अधिकार है और नाही आने वाले समय पर लेकिन वर्तमान पर आपका पूरा अधिकार है। जिंदगी जी भर के जियो यारों, क्या पता कल हो ना हो….

©Jitendra Kumar Som
  #JallianwalaBagh
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Jitendra Kumar Som

दोस्त का जवाब

बहुत  समय  पहले  की  बात  है  , दो  दोस्त  बीहड़  इलाकों   से  होकर  शहर जा  रहे  थे . गर्मी  बहुत  अधिक  होने  के  कारण  वो  बीच -बीच  में  रुकते  और  आराम  करते . उन्होंने  अपने  साथ  खाने-पीने की  भी  कुछ  चीजें  रखी  हुई  थीं . जब  दोपहर  में  उन्हें  भूख  लगी  तो  दोनों  ने  एक  जगह  बैठकर  खाने  का  विचार  किया .

खाना खाते – खाते  दोनों  में  किसी  बात  को  लेकर  बहस  छिड गयी ..और  धीरे -धीरे  बात  इतनी  बढ़  गयी  कि  एक  दोस्त  ने  दूसरे  को  थप्पड़  मार  दिया .पर  थप्पड़  खाने  के  बाद  भी दूसरा दोस्त  चुप  रहा  और  कोई  विरोध  नहीं  किया ….बस  उसने  पेड़  की  एक  टहनी  उठाई  और  उससे  मिटटी  पर  लिख  दिया   “ आज  मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने मुझे  थप्पड़  मारा ”

थोड़ी  देर  बाद  उन्होंने  पुनः  यात्रा  शुरू  की , मन  मुटाव  होने के  कारण  वो  बिना  एक -दूसरे  से  बात  किये  आगे  बढ़ते  जा  रहे  थे कि  तभी  थप्पड़  खाए  दोस्त  के  चीखने  की  आवाज़  आई , वह  गलती  से  दलदल  में  फँस  गया  था …दूसरे  दोस्त  ने  तेजी  दिखाते  हुए  उसकी  मदद  की  और  उसे  दलदल  से  निकाल  दिया .

 इस  बार  भी  वह  दोस्त  कुछ  नहीं  बोला  उसने  बस  एक  नुकीला  पत्थर  उठाया  और  एक  विशाल  पेड़  के  तने  पर  लिखने  लगा ” आज  मेरे  सबसे अच्छे दोस्त  ने  मेरी  जान  बचाई ”

उसे  ऐसा  करते  देख  दूसरे मित्र से रहा नहीं गया और उसने  पूछा , “ जब  मैंने  तुम्हे  पत्थर  मारा  तो  तुमने  मिटटी  पर  लिखा  और  जब  मैंने  तुम्हारी  जान  बचाई  तो  तुम  पेड़  के  तने  पर कुरेद -कुरेद  कर  लिख  रहे  हो , ऐसा  क्यों ?”
 
” जब  कोई  तकलीफ  दे  तो  हमें  उसे अन्दर तक नहीं बैठाना चाहिए  ताकि  क्षमा  रुपी  हवाएं  इस मिटटी की तरह  ही  उस तकलीफ को हमारे जेहन से बहा ले जाएं  , लेकिन  जब  कोई  हमारे  लिए  कुछ  अच्छा  करे  तो उसे इतनी गहराई से अपने मन में बसा लेने चाहिए कि वो कभी हमारे जेहन से मिट ना सके .” ,  दोस्त का जवाब आया.

©Jitendra Kumar Som
  #Leave दोस्त का जवाब

#Leave दोस्त का जवाब #ज़िन्दगी

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Jitendra Kumar Som

बुरे का अंत बुरा

किसी जंगल में चार चोर रहते थे। वे चारों मिलकर चोरी करते और जो भी सामान उनके हाथ लगता उसे आपस में बराबर-बराबर बाँट लेते थे। वैसे तो वे चारों एक-दूसरे के प्रति प्रेम प्रकट करते थे, किन्तु मन-ही-मन एक-दूसरे से ईर्ष्या करते थे। वे चारों अपने मन में यही सोचते थे कि यदि किसी दिन मोटा माल मिल जाए तो वह अपने साथियों को मारकर सारा माल हड़प लेगा। चारों चोर मौके की तलाश में थे। किन्तु उन्हें ऐसा मौका अभी तक नहीं मिला था। चारों चोर बहुत ही दुष्ट और स्वार्थी प्रवृत्ति के थे।

एक रात चारों चोर चोरी की इच्छा में इधर-उधर घूम रहे थे। उन्होंने एक सेठ के घर में सेंध लगाई और घर के अन्दर घुसकर सोना-चाँदी, हीरे-जवाहरात, रूपया-पैसा सब कुछ लूटकर भाग गए। चारों चोर पुलिस से बचने के लिए दो दिन तक जंगल में भूखे-प्यासे भटकते रहे।

सेठ ने चोरी की शिकायत पुलिस में दर्ज करा दी थी। सेठ की पुलिस विभाग में भी अच्छी जान-पहचान थी। चोरों को पकड़ने के लिए शहर के चप्पे-चप्पे पर पुलिस फैली हुई थी। जंगल से निकलना चोरों के लिए खतरे से खाली नहीं था। चोरों की इच्छा थी कि अभी वे कुछ दिन जंगल में छिपे रहें।

धीरे-धीरे चोरों के पास खाने-पीने का सामान समाप्त हो गया। कुछ दिन तक तो उन्होंने भूख बर्दाश्त की, लेकिन जब भूख बर्दाश्त करना असंभव हो गया तो उन्होंने शहर से खाना मंगवाने का निश्चय कर लिया।

आपस में सलाह करके दो चोर शहर चले गए ताकि वहाँ की स्थिति का पता लगा सकें और अपने साथियों के लिए भोजन भी ले आएँ। उन्होंने शहर जाकर भरपेट खाना खाया और खूब शराब पी। उसके बाद उन्होंने योजना बनाई कि वे अपने दोनों साथियों को मारकर सारा माल खुद हड़प लेंगे।

दोनों ने योजना को अंजाम देने के लिए खाने में जहर मिला दिया और जंगल की ओर लौटने लगे। दोनों चोर अपने-अपने मन में यही सोच रहे थे कि खाना खाकर जब वे दोनों मर जाएंगे तो मैं इसे भी मार दूँगा और सारा माल हड़प कर अमीर बन जाऊँगा।

उधर जंगल में उन दोनों चोरों ने खाना लेने गए हुए साथियों को मारने की योजना बना ली। वे भी उन्हें मारकर सारा धन हड़प लेना चाहते थे।

जब दोनों चोर शहर से खाना लेकर आए तो जंगल में ठहरे हुए चोरों ने अपने साथियों पर हमला कर दिया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया। अपने साथियों की हत्या करके वे दोनों चोर आराम से खाना खाने बैठ गए। खाने में पहले से जहर मिला होने के कारण वे दोनों भी तड़प-तड़प कर मर गए। इसलिए कहते हैं कि बुरे का अंत हमेशा बुरा ही होता है।

शिक्षा:- इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मनुष्य को बुरे काम नहीं करने चाहिए क्योंकि बुरे का अंत बुरा ही होता है।

©Jitendra Kumar Som
  #bekhudi बुरे का अंत बुरा

#bekhudi बुरे का अंत बुरा #प्रेरक

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Jitendra Kumar Som

अच्छे लोग बुरे लोग !

बहुत समय पहले की बात है. एक बार एक गुरु जी गंगा किनारे स्थित किसी गाँव में अपने शिष्यों के साथ स्नान कर रहे थे .

तभी एक राहगीर आया और उनसे पूछा , ” महाराज, इस गाँव में कैसे लोग रहते हैं, दरअसल मैं अपने मौजूदा निवास स्थान से कहीं और जाना चाहता हूँ ?”

गुरु जी बोले, ” जहाँ तुम अभी रहते हो वहां किस प्रकार के लोग रहते हैं ?”

” मत पूछिए महाराज , वहां तो एक से एक कपटी, दुष्ट और बुरे लोग बसे हुए हैं.”, राहगीर बोला.

गुरु जी बोले, ” इस गाँव में भी बिलकुल उसी तरह के लोग रहते हैं…कपटी, दुष्ट, बुरे…” और इतना सुनकर राहगीर आगे बढ़ गया.

कुछ समय बाद एक दूसरा राहगीर वहां से गुजरा. उसने भी गुरु जी से वही प्रश्न पूछा , ”

मुझे किसी नयी जगह जाना है, क्या आप बता सकते हैं कि इस गाँव में कैसे लोग रहते हैं ?”

” जहाँ तुम अभी निवास करते हो वहां किस प्रकार के लोग रहते हैं?”, गुरु जी ने इस राहगीर से भी वही प्रश्न पूछा

” जी वहां तो बड़े सभ्य , सुलझे और अच्छे लोग रहते हैं.”, राहगीर बोला.

” तुम्हे बिलकुल उसी प्रकार के लोग यहाँ भी मिलेंगे…सभ्य, सुलझे और अच्छे ….”, गुरु जी ने अपनी बात पूर्ण की और दैनिक कार्यों में लग गए. पर उनके शिष्य ये सब देख रहे थे और राहगीर के जाते ही उन्होंने पूछा , ” क्षमा कीजियेगा गुरु जी पर आपने दोनों राहगीरों को एक ही स्थान के बारे में अलग-अलग बातें क्यों बतायी.

गुरु जी गंभीरता से बोले, ” शिष्यों आमतौर पर हम चीजों को वैसे नहीं दखते जैसी वे हैं, बल्कि उन्हें हम ऐसे देखते हैं जैसे कि हम खुद हैं. हर जगह हर प्रकार के लोग होते हैं यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस तरह के लोगों को देखना चाहते हैं.”

शिष्य उनके बात समझ चुके थे और आगे से उन्होंने जीवन में सिर्फ अच्छाइयों पर ही ध्यान केन्द्रित करने का निश्चय किया

©Jitendra Kumar Som
  #cycle अच्छे लोग बुरे लोग !

#cycle अच्छे लोग बुरे लोग ! #प्रेरक

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Jitendra Kumar Som

भगवान विष्णु का स्वप्न

एक बार भगवान नारायण वैकुण्ठलोक में सोये हुए थे। उन्होंने स्वप्न में देखा कि करोड़ों चन्द्रमाओं की कांतिवाले, त्रिशूल-डमरू-धारी, स्वर्णाभरण-भूषित, सुरेन्द्र-वन्दित, सिद्धिसेवित त्रिलोचन भगवान शिव प्रेम और आनन्दातिरेक से उन्मत्त होकर उनके सामने नृत्य कर रहे हैं। उन्हें देखकर भगवान विष्णु हर्ष से गद्गद् हो उठे और अचानक उठकर बैठ गये, कुछ देर तक ध्यानस्थ बैठे रहे। उन्हें इस प्रकार बैठे देखकर श्रीलक्ष्मी जी पूछने लगीं, ``भगवन! आपके इस प्रकार अचानक निद्रा से उठकर बैठने का क्या कारण है?'' भगवान ने कुछ देर तक उनके इस प्रशन का कोई उत्तर नहीं दिया और आनंद में निमग्न हुए चुपचाप बैठे रहे, कुछ देर बाद हर्षित होते हुए बोले, ``देवि, मैंने अभी स्वप्न में भगवान श्रीमहेश्वर का दर्शन किया है। उनकी छवि ऐसी अपूर्व आनंदमय एवं मनोहर थी कि देखते ही बनती थी। मालूम होता है, शंकर ने मुझे स्मरण किया है। अहोभाग्य, चलो, कैलाश में चलकर हम लोग महादेव के दर्शन करें।''

ऐसा विचार कर दोनों कैलाश की ओर चल दिये। भगवान शिव के दर्शन के लिए कैलाश मार्ग पर आधी दूर गये होंगे कि देखते हैं भगवान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी ओर चले आ रहे हैं। अब भगवान के आनंद का तो ठिकाना ही नहीं रहा। मानों घर बैठे निधि मिल गयी। पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले। ऐसा लगा, मानों प्रेम और आनंद का समुद्र उमड़ पड़ा। एक-दूसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आनन्दाश्रु बहने लगे और शरीर पुलकायमान हो गया। दोनों ही एक-दूसरे से लिपटे हुए कुछ देर मूकवत् खड़े रहे। प्रशनोत्तर होने पर मालूम हुआ कि शंकर जी को भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न हुआ कि मानों विष्णु भगवान को वे उसी रूप में देख रहे हैं, जिस रूप में अब उनके सामने खड़े थे।

दोनों के स्वप्न के वृत्तान्त से अवगत होने के बाद दोनों एक-दूसरे को अपने निवास ले जाने का आग्रह करने लगे। नारायण ने कहा कि वैकुण्ठ चलो और भोलेनाथ कहने लगे कि कैलाश की ओर प्रस्थान किया जाये। दोनों के आग्रह में इतना अलौकिक प्रेम था कि यह निर्णय करना कठिन हो गया कि कहां चला जाय? इतने में ही क्या देखते हैं कि वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारद जी कहीं से आ निकले। बस, फिर क्या था? लगे दोनों उनसे निर्णय कराने कि कहां चला जाय? बेचारे नारदजी तो स्वयं परेशान थे, उस अलौकिक-मिलन को देखकर। वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गये और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान करने। अब निर्णय कौन करे? अंत में यह तय हुआ कि भगवती उमा जो कह दें, वही ठीक है। भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रहीं। अंत में वे दोनों की ओर मुख करते हुए बोलीं, ``हे नाथ, हे नारायण, आप लोगों के निश्चल, अनन्य एवं अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता है कि आपके निवास अलग-अलग नहीं हैं, जो कैलाश है, वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है, वही कैलाश है, केवल नाम में ही भेद है। यहीं नहीं, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में दो हैं। और तो और, मुझे तो स्पष्ट लग रहा है कि आपकी भार्याएँ भी एक ही हैं। जो मैं हूं, वही लक्ष्मी हैं और जो लक्ष्मी हैं, वही मैं हूँ। केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ़ धारणा हो गयी है कि आप लोगों में से एक के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानों दूसरे के प्रति ही करता है। एक की जो पूजा करता है, वह मानों दूसरे की भी पूजा करता है। मैं तो तय समझती हूं कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकाल तक घोर पतन होता है। मैं देखती हूं कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्रवंचना कर रहे हैं, मुझे असमंजस में डाल रहे हैं, मुझे भुला रहे हैं। अब मेरी यह प्रार्थना है कि आप लोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिये। श्रीविष्णु यह समझें कि हम शिव रूप में वैकुण्ठ जा रहे हैं और महेश्वर यह मानें कि हम विष्णु रूप में कैलाश-गमन कर रहे हैं।

इस उत्तर को सुनकर दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा की प्रशंसा करते हुए, दोनों ने एक-दूसरे को प्रणाम किया और अत्यंत हर्षित होकर अपने-अपने लोक को प्रस्थान किया। लौटकर जब श्रीविष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्रीलक्ष्मी जी ने उनसे प्रशन किया, ``हे प्रभु, आपको सबसे अधिक प्रिय कौन है?'' भगवन बोले, ``प्रिये, मेरे प्रियतम केवल श्रीशंकर हैं। देहधारियों को अपने देह की भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय हैं। एक बार मैं और श्रीशंकर दोनों पृथ्वी पर घूमने निकले। मैं अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम की खोज में देश-देशान्तर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा। थोड़ी देर के बाद मेरी श्री शंकर जी से भेंट हो गयी। वास्तव में मैं ही जनार्दन हूं और मैं ही महादेव हूं। अलग-अलग दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति मुझमें और उनमें कोई अंतर नहीं है। शंकरजी के अतिरिक्त शिव की चर्चा करने वाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है। इसके विपरीत जो शिव की पूजा नहीं करते, वे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते।''

इस तरह जो शिव की पूजा करता है वह वैकुंठवासी विष्णु को भी स्वीकार है और जो श्री विष्णु की वंदना करता है, वह त्रिपुरारी को भी मना लेता है।

©Jitendra Kumar Som
  #Health भगवान विष्णु का स्वप्न

#Health भगवान विष्णु का स्वप्न #पौराणिककथा

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Jitendra Kumar Som

बल से बड़ी बुद्धि

एक गुफा में एक बड़ा ताकतवर शेर रहता था। वह प्रतिदिन जंगल के अनेक जानवरों को मार डालता था। उस वन के सारे जानवर उसके डर से काँपते रहते थे। एक बार जानवरों ने सभा की। उन्होंने निश्चय किया कि शेर के पास जाकर उससे निवेदन किया जाए। जानवरों के कुछ चुने हुए प्रतिनिधि शेर के पास गए। जानवरों ने उसे प्रणाम किया।

फिर एक प्रतिनिधि ने हाथ जोड़कर निवेदन किया, ‘आप इस जंगल के राजा है। आप अपने भोजन के लिए प्रतिदिन अनेक जानवरों को मार देते हैं, जबकि आपका पेट एक जानवर से ही भर जाता है।’

शेर ने गरजकर पूछा-‘तो मैं क्या कर सकता हूँ?’

सभी जानवरों में निवेदन किया, ‘महाराज, आप भोजन के लिए कष्ट न करें। आपके भोजन के लिए हम स्वयं हर दिन एक जानवर को आपकी सेवा में भेज दिया करेंगे। आपका भोजन हरदिन समय पर आपकी सेवा से पहुँच जाया करेगा।’

शेर ने कुछ देर सोचा और कहा-‘यदि तुम लोग ऐसा ही चाहते हो तो ठीक है। किंतु ध्यान रखना कि इस नियम में किसी प्रकार की ढील नहीं आनी चाहिए।’

इसके बाद हर दिन एक पशु शेर की सेवा में भेज दिया जाता। एक दिन शेर के पास जाने की बारी एक खरगोश की आ गई। खरगोश बुद्धिमान था।

उसने मन-ही मन सोचा- ‘अब जीवन तो शेष है नहीं। फिर मैं शेर को खुश करने का उपाय क्यों करुँ? ऐसा सोचकर वह एक कुएँ पर आराम करने लगा। इसी कारण शेर के पास पहुँचने में उसे बहुत देर हो गई।’

खरगोश जब शेर के पास पहुँचा तो वह भूख के कारण परेशान था। खरगोश को देखते ही शेर जोर से गरजा और कहा, ‘एक तो तू इतना छोटा-सा खरगोश है और फिर इतनी देर से आया है। बता, तुझे इतनी देर कैसे हुई?’

खरगोश बनावटी डर से काँपते हुए बोला- ‘महाराज, मेरा कोई दोष नहीं है। हम दो खरगोश आपकी सेवा के लिए आए थे। किंतु रास्ते में एक शेर ने हमें रोक लिया। उसने मुझे पकड़ लिया।’

मैंने उससे कहा- ‘यदि तुमने मुझे मार दिया तो हमारे राजा तुम पर नाराज होंगे और तुम्हारे प्राण ले लेंगे।’ उसने पूछा-‘कौन है तुम्हारा राजा?’ इस पर मैंने आपका नाम बता दिया।

यह सुनकर वह शेर क्रोध से भर गया। वह बोला, ‘तुम झूठ बोलते हो।’ इस पर खरगोश ने कहा, ‘नहीं, मैं सच कहता हूँ तुम मेरे साथी को बंधक रख लो। मैं अपने राजा को तुम्हारे पास लेकर आता हूँ।’

खरगोश की बात सुनकर दुर्दांत शेर का क्रोध बढ़ गया। उसने गरजकर कहा, ‘चलो, मुझे दिखाओ कि वह दुष्ट कहाँ रहता है?’

खरगोश शेर को लेकर एक कुँए के पास पहुँचा। खरगोश ने चारों ओर देखा और कहा, महाराज, ऐसा लगता है कि आपको देखकर वह शेर अपने किले में घुस गया।’

शेर ने पूछा, ‘कहां है उसका किला?’ खरगोश ने कुएँ को दिखाकर कहा, ‘महाराज, यह है उस शेर का किला।’

खरगोश स्वयं कुएँ की मुँडेर पर खड़ा हो गया। शेर भी मुँडेर पर चढ़ गया। दोनों की परछाई कुएँ के पानी में दिखाई देने लगी। खरगोश ने शेर से कहा, ‘महाराज, देखिए। वह रहा मेरा साथी खरगोश। उसके पास आपका शत्रु खड़ा है।’

शेर ने दोनों को देखा। उसने भीषण गर्जन किया। उसकी गूँज कुएँ से बाहर आई। बस, फिर क्या था! देखते ही देखते शेर ने अपने शत्रु को पकड़ने के लिए कुएँ में छलाँग लगा दी और वहीं डूबकर मर गया।

©Jitendra Kumar Som
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