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ashishkumarverma2405
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Ashish Kumar Verma

A poet,a shayar,a kavi. I am a civil servant and differently abled, in wheelchair,want to contribute something positive to the society.

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Ashish Kumar Verma

#कविवार

कुछ दिन और ये  भरम होता  तो अच्छा होता
वो जरा और भी  बेरहम होता तो अच्छा होता

जब उसकी गिनती है दोस्तों में तो हाल है ऐसा
बेहतर है  कि  वो दुश्मन  होता तो अच्छा होता
 
वे जो दिल तोड़ कर  मुस्कुराया करते हैं हमारा 
उनको भी कोई ऐसा गम होता तो अच्छा होता

इतनी  बातें की हैं उनसे  कि मैं  रीत-सा गया हूँ
काश तब बोला जरा कम होता तो अच्छा होता

ये सर्दी, ये गर्मी और ये घनी बरसात बादलों की
तेरी यादों का कोई मौसम होता तो अच्छा होता

इस छोर से शुरू किया मगर दूसरा छोर न मिला 
ये किस्सा  वहीं पर खतम होता तो अच्छा होता!

©Ashish Kumar Verma कविवार

#ThinkingBack

कविवार #ThinkingBack

11 Love

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Ashish Kumar Verma

कविवार

तुमसे  बस इतना कहना  बाकी रहा
जो कहने आया था वो कहा ही नहीं

एक नदी  मेरे सामने  से ही  बह गई
प्यास थी  मगर मैं पास गया ही नहीं

इस सफर में मंजिलें  मिलीं बार-बार
मगर सफर ये कभी भी थमा ही नहीं

मैं जिनके भरोसे पर अब तक रहा हूँ
उन्होंने मुझ पर भरोसा किया ही नहीं

होने को इतनी बातें जिंदगी में हो गईं
मगर लगता है कि कुछ हुआ ही नहीं

मैं तो हर पल रुक जाने को  तैयार था
उसने मुड़ कर मेरा नाम लिया ही नहीं!

©Ashish Kumar Verma कविवार

#MessageToTheWorld

कविवार #MessageToTheWorld

6 Love

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Ashish Kumar Verma

कविवार

वह कली जो फूल बन कर न खिल सकी
वह बाती  जो कभी  दीप में न जल सकी
वह तारिका जो बादल से न निकल सकी
     उसका वैभव इस जग ने माना देखा नहीं
     मोल उसका भी जग में  मगर कम न था।

वह कोई राह जो गुम हो गई बियाबानों में
वह नदी  जो सूख गई  तपते रेगिस्तानों में
वह स्वर जो  गूँज कर रह गया  वीरानों में
     ये माना उसे मिला नहीं अधिवास उसका
     किंतु  संसार में उसका असर  कम न था।

एक रात जो  बिना नींद के ही  गुजर गई
एक इच्छा जो ह्रदय के भीतर बिखर गई
एक बात जो  बनने से  पहले  बिगड़ गई
    उसका होना  ये माना  जग में होना न था
    मगर उसमें कुछ होने का हुनर कम न था।

वह जो भ्रमर फँस गया लता के जालों में
वह जुगनू जो रह गया अदृश्य उजालों में
वह जो रहा मौन, सब बातों में,सवालों में
     ये बात और है उसकी ध्वनि सुना न कोई
     लेकिन मन से  वह भी  मुखर कम न था।

©Ashish Kumar Verma कविवार

कविवार

7 Love

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Ashish Kumar Verma

कविवार

रिश्ता तो था  मगर  बेअसर  था
मैं प्यासा था और वो समंदर था

वह मुझको  पहचानता  था पूरा
मगर जानता बस  नाम  भर था

इश्क भी था और आरजू भी थी
लेकिन  जाहिर करने में  डर था

जिस गली को कहते वो  बदनाम
कभी उसी गली में उनका घर था

उससे गुजरा मगर हुआ न उसका
वह  रास्ता था  और मैं  सफर था

लोगों ने समझा  मैं बिखर गया हूँ
मगर  वो मेरे सँवरने का हुनर था।

©Ashish Kumar Verma कविवार

कविवार

8 Love

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Ashish Kumar Verma

कविवार

ये जो छठ है,ये जीवन का व्रत है।

ये निराशा पर  आशाओं की  सम्पूर्ण विजय है 
ये भय पर विराजमान हो जाने वाला अभय है
ये थकी हुई अन्तरात्मा की  सम्यक विश्रांति है
ये साधन का अपने साध्य से सचेतन विलय है 
         ये पराजय को जय में बदलने का हठ है
                  ये जो छठ है,ये जीवन का व्रत है।

चमकती रौशनी में  दीये की  लौ अकम्पित है
अन्न-फूल-फल की  सहजता से  सुशोभित है
परिवर्तनों में परंपरा का  एक स्थिर ठहराव है
अनिश्चितताओं में कुछ ऐसा है  जो निश्चित है
             ईश्वर यहाँ प्रकृति के रुप में प्रकट है
                 ये जो छठ है,ये जीवन का व्रत है।

सूर्य की डूबती किरण में  खोज है निर्माण की
उगती किरणों में  धारणा है सजग उत्थान की
जल की शीतलता में जहाँ डूब जाती है वेदना
शक्ति का आह्वान  वहाँ है चेष्टा  अर्घ्यदान की
            निराकार यहाँ आकार के सन्निकट है
                 ये जो छठ है,ये जीवन का व्रत है।

जहाँ  दिवस-निशा  एकाकार हों, छठ वहीं है
जहाँ मैं पर हम का अधिकार हो, छठ वहीं है
जहाँ भ्रमित  भंगिमाओं पर  भावना हो भारी
जहाँ शुद्धि,सृजन का आधार हो, छठ वहीं है
       ये सृष्टि का सौंदर्य है,कल्याणप्रद,सत है
                ये जो छठ है,ये जीवन का व्रत है।

©Ashish Kumar Verma कविवार

#Sunrise

कविवार #Sunrise

7 Love

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Ashish Kumar Verma

कविवार

कृष्ण का प्रतिज्ञाभंग
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कुरुक्षेत्र के महा-समर का  वह दिवस नवम  प्रखर था
उन्मत्त काल कराल का पुनः खुला खर मुख विवर था
दुर्योधन के शब्दों से आहत  गंगापुत्र के शर हुए तीक्ष्ण
उनके रण-कौशल से पांडव दल में प्रकम्प भयंकर था

युधिष्ठिर अस्थिर,भीमसेन का भी तेज कुछ क्षीण हुआ
आज ये अर्जुन का बाण भी दिशाभ्रांत, लक्ष्यहीन हुआ
श्रीकृष्ण निःशस्त्र रहने की प्रतिज्ञा से बंधे हुए सोच रहे
क्या होगा  यदि धर्म के ऊपर  अधर्म-पक्ष आसीन हुआ

प्रभुता वही  जो अपनी प्रभा से सारे जगत का भार हरे
धर्म-संस्थापन, अधर्म-प्रभंजन  कर जग का उद्धार करे
यही सोच,उठे केशव,रथ के पहिए को बना कर सुदर्शन
बढ़े भीष्म की ओर,ज्यों स्वयं काल निज पद-प्रहार करे

अवनी डोली, हिला अंबर, विचलित पवन-अनुतान हुआ
दौड़े कौन्तेय,गहे चरण, प्रभु यह कैसा उद्वेग महान हुआ
प्रमुदित भीष्म,रख दिए धनुष, करबद्ध रण के बीच खड़े
धन्य जीवन यदि प्रभु-कर से  इस तन का अवसान हुआ

प्रभु मुस्काए,ये कोप नहीं, प्रतिक्रिया रुद्ध अनुशासन की
प्रतिज्ञा नहीं, आवश्यक है केवल प्रक्रिया धर्म स्थापन की
यदि यह शस्त्र ही शांति के मार्ग का अनिवार्य पाथेय हुआ
तब शस्त्र से ही गढ़नी होगी  भूमिका शांतिमय जीवन की।

©Ashish Kumar Verma कविवार

#Wood

कविवार #Wood

6 Love

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Ashish Kumar Verma

कविवार

यूँ तो कुछ-न-कुछ बाकी ही रहेगा हमेशा यहाँ पाने के लिए
मगर जो हासिल है, क्या वो काफी नहीं ठहर जाने के लिए

तुम्हारे पास अदाएँ हैं बहुत जो हँस कर छिपा लेती हो तुम
मेरे पास मेरी आशिकी के सिवा  कुछ नहीं छिपाने के लिए

हाँ,यह सही है तेज हवाओं में उड़ जाएँगें कच्चे घरौंदे बहुत
मगर तूफान भी  जरूरी होता है कभी, धुंध मिटाने के लिए

यह आग बुझ जाती कब ही, अगर कोशिश ईमानदार होती
वो मगर  आग पर आग ही फेंकते रहे, आग बुझाने के लिए

जिन पर लुटा हूँ, वही पूछते हैं,मुझ पर लुटा सकते हो क्या
कैसे बताऊँ, मेरे पास अब  कुछ बाकी नहीं लुटाने के लिए!

©Ashish Kumar Verma कविवार

#WallTexture

कविवार #WallTexture

9 Love

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Ashish Kumar Verma

कविवार

कैसे बतलाएँ हम,कितनी दूर चले आएँ हैं!

सोचा था  दो-चार कदमों पर  मुकाम सुहाना होगा
कुछ ही क्षणों में इस सफर का कोई ठिकाना होगा
   यही सोचते-सोचते अनगिनत युगों से भरमाए हैं
            कैसे बतलाएँ हम,कितनी दूर चले आएँ हैं!

यह नींद भी रही सपनों की बंदिनी, न जाने कब से
ये साँस है  गहरी प्यास की संगिनी, न जाने कब से
   ये उलझन  सुलझे कम ही हैं, ज्यादा उलझाए हैं
           कैसे बतलाएँ हम,कितनी दूर चले आएँ हैं!

हर उत्तर एक प्रश्न बन गया,हर यत्न,अभ्यास नया
जब चाहा इतिहास भुला दें,बन गया इतिहास नया
   दूसरे  समझे कम हैं, खुद को ज्यादा समझाए हैं
           कैसे बतलाएँ हम,कितनी दूर चले आएँ हैं!

बस एक ठौर  पाने के लिए  कितने बसेरे छूट गए
वह पड़ाव  पीछे छूट गया, वो साये घनेरे छूट गए
    नये रास्ते  खोज ना पाएँ, पुरानी राह भुलाए हैं
          कैसे बतलाएँ हम,कितनी दूर चले आएँ हैं!

©Ashish Kumar Verma कविवार

कविवार

6 Love

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Ashish Kumar Verma

कविवार

हाँ,उनकी सच्चाइयाँ तो पता चलीं,मगर जरा देर हो गई
ये कलियाँ फूल बन कर तो खिलीं,मगर जरा देर हो गई

धूप बिखरी थी इन गलियों में,यह हमें अब मालूम हुआ
आखिर  बंद खिड़कियाँ तो खुलीं, मगर जरा देर हो गई

मैंने अँधेरे में किरणों के निशान खोजने की कोशिश की
एक कोने में फिर बत्तियाँ तो जलीं,मगर जरा देर हो गई

एक फुर्सत भरी शाम की  मैंने राह देखी न जाने कब से
मेरे चौखट पर  एक शाम तो ढली, मगर जरा देर हो गई

जिसके हिस्से में जो जितना होता है,वही उसे मिलता है 
मेरे हिस्से में भी खुशियाँ तो मिलीं, मगर जरा देर हो गई!

©Ashish Kumar Verma
  कविवार

कविवार

10 Love

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Ashish Kumar Verma

कविवार

हाँ,उनकी सच्चाइयाँ तो पता चलीं,मगर जरा देर हो गई
ये कलियाँ फूल बन कर तो खिलीं,मगर जरा देर हो गई

धूप बिखरी थी इन गलियों में,यह हमें अब मालूम हुआ
आखिर  बंद खिड़कियाँ तो खुलीं, मगर जरा देर हो गई

मैंने अँधेरे में किरणों के निशान खोजने की कोशिश की
एक कोने में फिर बत्तियाँ तो जलीं,मगर जरा देर हो गई

एक फुर्सत भरी शाम की  मैंने राह देखी न जाने कब से
मेरे चौखट पर  एक शाम तो ढली, मगर जरा देर हो गई

जिसके हिस्से में जो जितना होता है,वही उसे मिलता है 
मेरे हिस्से में भी खुशियाँ तो मिलीं, मगर जरा देर हो गई!

©Ashish Kumar Verma कविवार

कविवार

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