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anitakakran8880
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Anita Kakran

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Anita Kakran

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Anita Kakran

आईने में देखा कितनी बार   बदला सा ,चेहरा नजर आया                                                                         परिवर्तित  परिस्थितियाँ अक्सर ,अंतर्मन को झकझोर देती हे                                                                                मन हमारा उलझ जाता हे   उलझन में कितने ही आईनों को तोडते हे हम                                           हर टुकड़ा आइने का वही रूप दिखाता हे आईना , यूं ही गिरता रहता हे                                                      हमारे दिमाग का पर्दा हटने के बजाय बढ़ता रहता हे यही जिन्दगी हे ,ये बेरंग से पर्दे, ये चुनौतियां ,ये भेद ,ये अपमान। कितना बदल देती हे इन्सान को ।              फिर भी आइना तो मौन हे। आइना ये नही बतलाता तू कौन हैं  ???                                     फिर भी आइना देखते हे हम और खुश हो जाते हे। काश ,आईने की जुबान होती।                                             आइना  और  कुछ् नही ,नज़र का धोखा ही तो हे                                                                                     सच हे ये आइने के सामने सब इन्सा नज़र आते हे सच हे हम आईने के सामने खुबसूरत नजर आते हे  देह तेरी भी हे।देह मेरी भी हे। फिर कहती हूँ सच वो नही   जो आइना दिखाता हे सच वो नही जो आइना दिखाता   हे                                  आइना सच नही तो सच क्या है ? हमारे भीतर का सच ही सच हे।                                             हमारी सोच सच हे, हमारा कर्म सच हे,सच हे हमारा त्याग , सच हे मानवता,     सच हे हमारे अल्फाज ,सच है हमारी वास्तविकता ।                                                                  आइने को कैसे कहे की तू सच है ,                                           जब जब टूटते हे हम  आइना हमे साबुत दिखाता है । कांच का आईना सच नही ,भीतर का बोलताआईना सच है  ।                                                            🔅🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆

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Anita Kakran

मुस्कुराने की वजह, ढूंढती आंखें                                                कभी बाहर ,कभी अंदर ,झांकती आंखें                                                                                                                                           जिन्दगी की रफ्तार में, कुछ कहने को, तरसती  आंखें                                                          बीते लम्हों में, ,गुजरने को, तरसती आंखें                            कितने अर्से से, तुझमे  तुझको ढूंढती  आँखें                                                    तेरी नजरों में , अपने को तलाशती मेरी आँखे                            मेरी खवहिश, जिन्दगी तुझको बेप्नह रहमत बकशे                मुस्कुराती, मेरी आंखों की जुबां को समझे।

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Anita Kakran

ये वही पत्थर है ,                                                                अड़ जाता था हर वक्त                                                       आज रास्ता साफ नजर आ रहा था                                      सोच कर मैं आराम से निकला जा रहा था                      मुस्कुराता हुआ थोड़ी दूर ही चला था ,                                   कि वही पत्थर मेरे समक्ष खड़ा था,                                        मन में सहसा एक प्रश्न उठा?                                                क्या पत्थरों से ठोकरें खाते रहना ही जिंदगी है,                   सोचा! आज इसे ना मारूंगा,                                            बच जाऊंगा खुद भी  और इसे भी बचाऊगा।                    मगर हाय रे पत्थर के किस्मत                                                हर पल ठोकरें खाने की ताक में रहता है                            रास्ते में फिर अड़ कर खड़ा हो जाता है j                             दशा पर इसकी तरस भी आता है                                     नादानी भरी हरकत को ठोकर नहीं मारूंगा मैं उस पथ से स्वयं हट जाऊंगा ।                                                               भगवान इतनी शक्ति देना भला करूं सबका मेरे ह्रदय की झोपड़ी में सम्मान रहे सबका।

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Anita Kakran

फूलों सी दिखती है मेरी मां फूलों सी कितनी तहओ से ढकी है मेरी मां फूलों में खुशबू का अहसास है मेरी मां खामोशी मेरी, सिवा तेरे कोई नहीं समझा दूर रहकर भी सब कैसे जान लेती है मेरी मां मां मेरी पतली सी ,नाजुक सी ,सिमटी सी दिखती है उसकी हिम्मत ,उसकी आशा, परत दर परत फूलों सी खुलती है ना जाने कितनी परतें ओढ़े है मेरी मां ,हर परत खुलते ही किताबों से अलग, एक नई सीख दी जाती है मेरी मां स्याही नहीं कलम नहीं किताब नहीं उसकी मन पर मेरे शब्दों की छाप है उसकी, खुशबू से अपनी तू आज भी घर को महका देती है मेरी मां तू दूर होकर भी कितना सुकून देती है मेरी मां । तू दूर होकर भी कितना सकुन देती हे मेरी माँ मेरी माँ को समर्पित है कुछ पँक्तियाँ

मेरी माँ को समर्पित है कुछ पँक्तियाँ

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Anita Kakran

फूलों सी दिखती है मेरी मां फूलों सी कितनी तहओ से ढकी है मेरी मां फूलों में खुशबू का अहसास है मेरी मां खामोशी मेरी, सिवा तेरे कोई नहीं समझा दूर रहकर भी सब कैसे जान लेती है मेरी मां मां मेरी पतली सी ,नाजुक सी ,सिमटी सी दिखती है उसकी हिम्मत ,उसकी आशा, परत दर परत फूलों सी खुलती है ना जाने कितनी परतें ओढ़े है मेरी मां ,हर परत खुलते ही किताबों से अलग, एक नई सीख दी जाती है मेरी मां स्याही नहीं कलम नहीं किताब नहीं उसकी मन पर मेरे शब्दों की छाप है उसकी, खुशबू से अपनी तू आज भी घर को महका देती है मेरी मां

फूलों सी दिखती है मेरी मां फूलों सी कितनी तहओ से ढकी है मेरी मां फूलों में खुशबू का अहसास है मेरी मां खामोशी मेरी, सिवा तेरे कोई नहीं समझा दूर रहकर भी सब कैसे जान लेती है मेरी मां मां मेरी पतली सी ,नाजुक सी ,सिमटी सी दिखती है उसकी हिम्मत ,उसकी आशा, परत दर परत फूलों सी खुलती है ना जाने कितनी परतें ओढ़े है मेरी मां ,हर परत खुलते ही किताबों से अलग, एक नई सीख दी जाती है मेरी मां स्याही नहीं कलम नहीं किताब नहीं उसकी मन पर मेरे शब्दों की छाप है उसकी, खुशबू से अपनी तू आज भी घर को महका देती है मेरी मां


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