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sudhanshu7324
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Sudhanshu

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Sudhanshu

कि जो तू फिरता है अपने मानिंद आंख बंद किए हुए , 
विशाल इस ख्याल का सुकून पैबंद लिए हुए ,
कि चल रहा है जो कुछ भी है रहम मेरे किए हुए ।

और फूले भ्रम इस भाव का सुकूत सदृश्य पाल लिए हुए ,
कि याचक है अधिनस्थ समस्त जन लीक में कर जोड़ पड़े हुए ,
फिर तृप्त विभोर इस भंगिमा में डूबे कृपार्थ-नजर कीये हुए ।

तो फिर तेरे इस दरिद्र विचार का उद्धार दंश दिए हुए , स्व-प्रकृति गरिमा समेट  क्षार अर्थ का किए हुए ,
लो चला जा रहा नींद से झकझोर कर्म अपने लिए हुए ।
अब भोग कर विलास कर एक नए आहार की तलाश कर !  Poetic Resignation

Poetic Resignation

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Sudhanshu

बेबस हालातों से लड़ती भूख भी होता , आंखे बंद  खुदाई ढूंढती भीड़ की दौड़ यही सम्मलित होता ,
और इन दृश्यों के दर्शक भी सभी , मंजर ये सारे सुलझाने में लगे पथप्रदर्शक भी,  यही होता।
स्पर्धा और प्रतिस्पर्धा में होड़ यही होता , सौभाग्य सुकर्म जोड़ ही फल का योग होता ,
सुलझाना भी इसी बिखरे प्रतीत  जाल सभी को होता  ,
 ला एक सामंजस्य हर आयाम पे , कस्तूरी अपने केंद्र की जान के  , 
की सारे भटकाव से , बिखराव से , वैराग्य से ,मिल बहा चला जो होता ,
उनका संगम यही , सागर यही होता , यहीं जहां   प्रकृति का हर गोचर  मिल एक होता ।

और इन सब से  बेहतर क्या इस इच्छा  का परीक्षा होता , की कब आत्म के ब्रह्म से मिल सकने का सही संयोग होता । # अधूरा आधा

# अधूरा आधा

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Sudhanshu

इस दुनिया के होने पे मुझे बिलकुल भी अचरज नहीं होता ,
और नाही इसके " ऐसे " होने पे  ताज़ूब का ख्याल ही पैदा होता ।
कि किसी के भी हिस्से में भी जो ये जिम्मा होता ,
ना इस से बेहतर कुछ पश्माने ए शमा होता ।
कि मंजर भी यही होता , उसका बायां भी यूंही होता ,
हां माटी के ही बुत होते  , रंग भी चहुं ओर यही पुता होता ,
जज़्बात इसी सरीखे भरा होता , हालात भी कुछ यूंही होता ।
द्वंद परस्पर हर ख्याल में , असमंजस का हाल भी यूंही होता , सवाल  यही , भ्रमों का मायाजाल  यही होता ।
सारा ताना बाना और फ़साना भी यूंही सजा होता ,
 जाल बिछे इस मार्ग में धाराओं का प्रवाह यही, बह चलने का द्वार यही होता ।
राह में ठहराव भी ऐसे बने होते , लगाव भी यही होता अलगाव भी यूंही होता,
भोग और वियोग के जड़ों का जोड़ ऐसे ही एक  होता ,
भय और लोभ का गठजोड़ का सोज भी यूंही बुना होता ।

हां! होते ऐसे ही मौजूद साधन भी प्रसाधन भी , भरमाने को ललचाने को ,
कृपार्थ भी कृतार्थ भी , अर्थ और  स्वार्थ यही , पदार्थ यही  होता ,
दृष्टा समक्ष खुद से खुदी छले जाने का विहंगम दृश्य भी यही हो होता।

बेबस हालातों से लड़ती भूख भी होता , आंखे बंद  खुदाई ढूंढती भीड़ की दौड़ यही सम्मलित होता ,
और इन दृश्यों के दर्शक भी सभी , मंजर ये सारे सुलझाने में लगे पथप्रदर्शक भी,  यही होता। # मोक्ष मीमांसा

# मोक्ष मीमांसा


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