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क्षितिज़ समवर्ती

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क्षितिज़ समवर्ती

इस हाइड्रोजन जैसी जिंदगी को हीलियम बनाने की जद्दोजहद में ही आधी उम्र गुजर जाएगी और हमारी सारी चाहतें धरी की धरी रह जाएंगी। हीलियम बनने के बाद भी हमें किसी न किसी से बंध बनाना ही होगा। बिना बंधन के कोई भी पूर्ण नहीं है। हम संतृप्त होकर भी संतुष्ट नहीं हो सकते। मानवीय प्रवृत्ति एकदम विज्ञान जैसी है। मेंडलीफ की आवर्त सारणी का हर सदस्य अपना अष्टक पूर्ण करने की जद्दोजहद में लगा रहता है। यहाँ तक कि जीरो समूह के तत्व भी स्थाई होने के बावजूद अपूर्ण हैं। हाइड्रोजन से हीलियम तक आने का एक लंबा सफर है। बीच में आराम भी किया जा सकता है। लेकिन आराम अस्थाई है क्योंकि हम भविष्य दृष्टा हैं। वर्तमान में जीने की आदत नहीं है। अतीत में किए गए काम ओछे लगते हैं। अपने वर्तमान का अधिकतम समय अतीत के पश्चाताप और भविष्य की चिंता में जाया कर देते हैं। परिणाम यह होता है कि हम कहीं के नहीं रहते। फिर कोई शायर आकर कह देता है "हम दीवानों का पता पूछना, तो पूछना यूँ, जो कहीं के नहीं रहते वो कहाँ रहते हैं," और हम तालियाँ बजा देते हैं। हम सोच ही नहीं पाते कि हमें रहना कहाँ है। निराशा के समय अतीत में, चिंता के समय भविष्य में, उत्साह के साथ वर्तमान को जीने का कोई जिक्र ही नहीं होता। युवा पीढ़ी का अधिकांश हिस्सा मानसिक अवसाद से जूझ रहा है। एक ही छात्र यूपीएससी और ग्रुप डी दोनों की परीक्षाएं दे रहा है। मकसद सिर्फ एक 'किसी तरह सरकारी नौकरी मिले'। आज जब सरकारी तंत्र में रोजगार के अवसर साल- दर- साल कम होते जा रहे हैं, जाहिर है प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। हजार पदों के लिए लाखों में आवेदन आते हैं। नौकरी हजार को ही मिलनी है। बाकी के लोगों का बेरोजगार होना तय है, ऐसी स्थिति में वैकल्पिक व्यवस्था की ओर देखते हैं। परीक्षा से पहले हमारा आत्मविश्वास इतना होता है कि उस समय बैकअप प्लान का ध्यान ही नहीं आता। असफल होने के तुरंत बाद हमारा चेतन मन निराशा के गर्त में चला जाता है। अतीत का ख्याल दिल-ओ- दिमाग से जाता ही नहीं। अवचेतन मन में भी वही समाया रहता है। ऐसी स्थिति में हमारी सोचने समझने की क्षमता खत्म हो जाती है। फिर कोई आता है और हमें राम के नाम पर बरगला कर चला जाता है। कोई रहीम के नाम पर अपने ताने-बाने बुनता है। कोई जातीय कट्टरता आप पर हावी कर देता है। कोई नाम बदलकर आपका दिल जीत लेता है। और इन सब के बाद चुनाव तो जीत ही लेता है। हम आपस में लड़ते रहते हैं और वे चिकन बिरयानी खाकर मौज काटते रहते हैं। सवाल उठता है यह सब कैसे हुआ। जवाब साफ है पहले हम भविष्य दृष्टा बने फिर अतीतसोची और उसके बाद लगभग पागल। हमारे पागलपन का फायदा उठाकर लोगों ने अपना वर्तमान जिया। और हम भविष्य और अतीत के फेर में अपना वर्तमान भूल कर मनोज मुंतशिर की शायरी पर ताली बजाने के लिए शेष रह गए।

©क्षितिज़ समवर्ती #Dark
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क्षितिज़ समवर्ती

being a journalist these thing are importantः-

चल रहे  हैं  रोज  लेकिन  पथ  अभी अज्ञात है।
या यूँ कहें कि एक पथ पर चलना हमें दुश्वार है।
है जो भी, जैसा भी है, लेकिन बात इतनी साफ है-
कुछ मूल्य हैं जिनका हमें रखना हमेशा ध्यान है।

©क्षितिज़ समवर्ती

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क्षितिज़ समवर्ती

शीर्षक - प्रथम प्रेम।



 जूलॉजी का पहला लेक्चर। शहर, कुर्सी- टेबल, चाॅक- डस्टर, ब्लैकबोर्ड, प्रोफेसर और सहपाठी, यहाँ तक की पढ़ाई का माध्यम तो हिन्दी ही था, लेकिन अत्यन्त संकीर्ण ढर्रे पर। एकदम सबकुछ नया था अंकुश के लिए। गाँव के हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों की जो दशा देश मे है उस कुंठित दशा से अछूता रहना अंकुश के लिए भी संभव न था। पूरे लेक्चर की समयावधि तक अर्थात 40 मिनट वही अंकुश जो अपने गाँव का टाॅपर था, जिसके नाम की पूरे गाँव के गली- मुहल्ले में चर्चा थी, जो तारीफों के अमृत रूपी सागर मे निमग्न था, वही अंकुश आज मानो गहन तिमिर मे संज्ञाविहीन हो गया हो। जीवन नि:सार है, संसार निरर्थक है, मै निरूपाय अकेला क्या करूँगा ? भांति- भांति की भविष्यगत चिन्ताएँ उसके माथे पर शिकन पैदा कर रहीं थीं, और वह क्लास के पहले बेंच पर बैठकर जागृत अवस्था में स्वप्न सागर मे लीन था और संभवत: दु:खी भी। तभी माधुर्य से लबरेज लहजे मे किसी ने कहा - " एक्सक्यूज मी ! आप आपका नंबर दे दो । "


अंकुश भले ही अंग्रेजी जैसे भविष्यनिर्माता विषय में कमजोर था, लेकिन था- हिन्दी पट्टी से। उस माधुर्य से ओत -प्रोत लहजे मे एक शब्द इंग्लिश का और एक ही वाक्य में सर्वनाम की पुनरूक्ति और उससे भी कहीं ज्यादा आखिरी के दो शब्दों मे आदेश ही प्रतीत हुआ और आग्रह का तो अंश ही न दिखा। इन सब बातों से उसे पहले तो आश्चर्य हुआ लेकिन तुरंत ही वह परिहास मे परिणित हो गया। उस परिहास को मन मे मसोसकर न जाने अचानक उसके जहन मे क्या आया एक कागज पर अपना मोबाइल नंबर लिखकर उसे दे दिया और पुन: टेबल पर सिर औंधियाकर चिन्तामग्न हो गया। कुछ देर बाद शोरगुल ज्यादा था। उसने निहारा तो क्लास खाली थी और उसी रूम में दूसरे क्लास के विद्यार्थी प्रवेश कर रहे थे। जब शोर और तीव्र हुआ तो अंकुश ने बैग उठाया और हॉस्टल की ओर लौट पड़ा।


सबकुछ नया था, एकदम नया। उधर काॅलेज मे क्लासमेट, इधर हाॅस्टल मे हाॅस्टलर, और रूम मे रूममेट। जब सबकुछ नवीन होता है तो उसमें आनन्द का पुट थोड़ा दीर्घ होता है। घर मे बात करना, रूम का बेड ठीक करना, अपने रूममेट को अपनी हैंडराइटिंग से रूबरू कराना और उनकी हैंडराइटिंग से वाकिफ होना, कुछ तारीफें करना वो भी इसलिए कि तारीफें मिल सकें, और कुछ बायो की रटी- रटाई थ्योरी और कान्सेप्ट पर शास्त्रार्थ करना, और उद्देश्य केवल एक:-अपनी- अपनी विद्वता का प्रदर्शन करना।


रूम मे थोड़ी बहुत विषयगत चर्चाएँ चल ही रही थीं कि बायो स्ट्रीम के दो- चार सहपाठी आस- पड़ोस के रूम से भी आ गए और गहन वैज्ञानिक वार्तालाप प्रारंभ हुआ। इस वैज्ञानिक वार्तालाप में अंकुश ऐसे लीन हो गया मानो पाँव पर रेत रखकर नदी किनारे कोई बालक घरौंदे बना रहा हो और दुनिया से अनभिज्ञ हो। कब पाँच बज गए उसे होश ही न रहा। तभी उसके फोन ने मौन तोड़ा और रिंगटोन बजा ' मेरा रंग दे बसंती चोला '। नंबर नया था, लेकिन आश्चर्य कम। क्योंकि सबकुछ तो नया ही था। उसने फोन उठाया तो अत्यंत आत्मविश्वासयुक्त और प्रसन्नतापूर्ण लहजे मे आवाज आई -
         " हेलो ! मै प्रज्ञा बोल रही हूँ। "
अंकुश न- नुकुर कैसे करता, क्योंकि पूरे काॅलेज मे एक ही लड़की से तो भेंट हुई थी। फिर भी बात बनाने के लिए बड़े शालीन शब्दों मे उसने कहा - " जी माफ कीजिए ! मैने ठीक से आपको पहचाना नही , कृपया विस्तार से बताइए। "
प्रज्ञा ने पहला ही वाक्य अंकुश के मुह से सुना था वो भी इतना विस्तृत, इतना सुसंगठित और इतने विनम्र स्वर में, उसे विश्वास ही नही हो रहा था कि ये वही लड़का बोल रहा है जो सुबह काॅलेज मे बेंच पर सिर औंधाये बैठा था, उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी काॅल सेन्टर मे फोन मिला है और कोई कस्टुमर केयर के आँफिस से बोल रहा है।
खैर ! इन सब भावों को  मन मे ही समेटकर श्रद्धा ने सुबह हुई मुलाकात और वाकिये का जिक्र किया और अंकुश की बनावटी बातों से पर्दा हटाया।

दोनों के लिए परिस्थितियाँ नई थीं, पर प्रज्ञा स्वभाव से चंचल और मसख़री थी। उसे इस बात से कोई फर्क नही पड़ता था कि वह अपने वाक्य संरचना को गढ़कर बोले। इसमें दोष भी उसका नही था । वह तो शहरी परिवेश मे पली- बढ़ी हिन्दी इंग्लिश की मिक्सवेज खाती हुई, मौलिकता के मूल्य से ऊपर उठकर नैतिकता की पराकाष्ठा में विहार करती हुई, अपनी मौखिकता का पोषण कर रही थी। पर एक बात उसके पक्ष मे थी, वो नैतिकता और उच्छृंखलता की सीमा पर प्रहरी बनकर खड़ी थी। अर्थात नैतिकता के अंतिम पायदान में तो थी लेकिन उच्छृंखल न हुई थी। उसने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - " सुबह तुम इतने उदास और परेशान से क्यों बैठे थे । "

अंकुश को एक क्षण के लिए आभास तो हुआ की वास्तविकता से क्या परदा करु ? जो हकीकत है उसे बयां करने में क्या हर्ज ! पर वो यह सब कैसे कहता? अपने विद्यालय का टाॅपर जो था ! तारीफों के शीशे रूपी ईंट से गढ़ा हुआ भवन जो था ! उसने पढ़ा अवश्य था कि " आलोक एक उज्ज्वल सत्य है " पर उसका अनुशरण भला क्यूँ करता, वह एक लड़का भी तो था। वह अपने ही मुंह से कैसे कहता कि जूलॉजी प्रोफेसर के द्वारा दिए गए लेक्चर की हेडिंग तक उसे समझ मे नही आई। वह कैसे कहता मै संज्ञाविहीन हो गया था, और वह कैसे कहता मैं गाँव से हूँ इसलिए इंग्लिश समझ मे नही आती। उसने बात को बनाते हुए कहा - " कुछ नहीं ! बस थोड़ा बाहरी तनाव था " और बात को आगे बढ़ाते हुए बोला - " प्रज्ञा तुम अपने बारे मे बताओ " इतना सुनते ही प्रज्ञा का नीरस हृदय श्रृंगारिक आभूषण पहनकर रस से सराबोर हो गया, उसमें काव्यात्मक गुण प्रस्फुटित होने लगे क्योंकि उसे पहली बार किसी लड़के ने इतने प्यार से भरमुह प्रज्ञा कहा था। लेकिन ये प्रज्ञा का भ्रम था क्योंकि अंकुश की आवाज मे इतनी गहराई और मिठास पहले से ही थी। अभी तो बातों का सिलसिला शुरू हुआ था और वार्तालाप इतना कम था कि अभी तक प्रज्ञा अंकुश का नाम तक न पूछ पाई थी, लेकिन उसकी आवाज मे कुछ ऐसा जादू अवश्य था कि प्रज्ञा कुछ- कुछ अंकुश की होने लगी थी। प्रज्ञा ने स्वयं को भावों की दरिया से निकालकर पूरे होश- हवाश में पूछा- " ओए हैलो मिस्टर ! पहले अपना नाम तो बताओ? " उत्तर मिला " अंकुश "। अब प्रज्ञा ने वही ट्रिक अपनाया जो अंकुश ने अपनाया था। फर्क सिर्फ इतना था कि ये जानबूझकर था और वह स्वाभाविक। उसने प्यार भरे लहजे मे कहा- " अंकुश पहले तुम्हीं अपने बारे मे बताओ। " बातें बढ़ रही थीं, दोनो एक दूसरे के करीब होते जा रहे थे, ठीक प्रज्ञा जैसी मनःस्थिति अंकुश की भी थी। उसे भी आज तक किसी लड़की ने भरमुह अंकुश न कहा था। उस पहले दिन की मुलाकात में वे दोनो एक दूसरे से अलग एक स्वतंत्र इकाई थे, परन्तु उस पहले दिन की बातचीत मे वे एक दूसरे के थे, और अब एक दूसरे के नहीं बल्कि एक ही थे।

कहते हैं जिस निबंध की प्रस्तावना निबंधकार गढ़ता है उसका उपसंहार भी उचित तर्कों और सटीक शब्दों के माध्यम से करता ही है, फोन पर पहले दिन जो प्रज्ञा और अंकुश इन दो प्रेमी निबन्धकारों ने प्रेमरूपी निबंध की प्रस्तावना गढ़ी थी उसका अभी विषय- विस्तार चल रहा है। रोज रात घण्टों बातें होती हैं, भविष्यगत चर्चायें होती हैं, आज भी लाइब्रेरी मे उठना बैठना साथ होता है, दोनोंं अपने कर्तव्य पथ पर प्रेमरूपी चादर को ओढ़कर ज्ञानरूपी मार्ग मे चल रहे हैं। प्रज्ञा अपनी प्रज्ञा ( विवेक) का समुचित प्रयोग करती है और अंकुश अपनी इन्द्रियों मे अंकुश लगाकर प्यार को प्यार ही रहने दो जैसी उक्ति को चरितार्थ कर रहा है। पता नही इस प्रेमरूपी निबंध का उपसंहार कैसा होगा। भगवान जाने ?

©क्षितिज़ समवर्ती #AloneInCity
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क्षितिज़ समवर्ती

मैं, तुुम और 40 मिनट।( डायरी के एक विशेेष पन्ने से)


उस दिन मैने किताबों के बहाने तुमसे मिलने का सौभाग्य अर्जित किया था। तुमने मौसी के घर से आने की खबर जैसे ही मुझे दी मैने ठिठोली करते हुए कहा था- हमारे लिए क्या लाओगी? उत्तर मे तुमने कहा था- लाऊॅगी तो कुछ नही पर आपको बस स्टैंड जरूर आना होगा। मेरे " ना " में जबाब देते ही तुमने कहा था- इसका मतलब आप जरूर आएगें, और आप आएंगे ही इसका मुझे पूरा विश्वास है। और अगले दिन तुम्हारे हाथ मे किताबें देखकर और यह जानकर कि यह मेरे लिए हैं मेरी खुशी का ठिकाना न था। तुम्हारे लिए तो किताबें बेशक किताबें ही होंगी लेकिन मेरे लिए तो वे एक अमूल्य रत्न थीं, जिनके बहाने तुम्हारी यादों का भवन ताउम्र दैदीप्यमान रहता और रहेगा। पर इन सब से परे तुम उस दिन और भी खूबसूरत लगी थी। तुम्हारे साथ बिताए हुए वे 40 मिनट लगे थे। लोग दुनिया को कितना भला- बुरा कहते हैं और मै भी मानता हूँ, पर उन चालीस मिनटों मे संसार की खूबसूरती का पहली बार अहसास हुआ था और ऐसा लग रहा था मानो संसार की सारी खूबसूरती तुममे ही समाहित हो। तुम्हारे आभा ने मेरे चहुओर ऐसा सम्मोहन बिछा रखा था कि कुछ क्षणों के लिए मै आत्मविस्मृत सा हो गया था और मुझे पता तक न था कि मै बस मे हूँ। मै तो बस तुम्हारी ओर निर्निमेष निहारता रहा था। शायद दो साल से न देखने की आतुरता थी या तड़प या फिर कुछ और, पर सच बताऊँ तो तुम इन दो सालों मे इतनी खूबसूरत हो गई थी कि पूछो मत। मै तुम्हें किसी अलौकिक सुन्दरी या अप्सरा की संज्ञा तो नही दूँगा पर वयःसंधि की स्वाभाविक प्राकृतिक सुन्दरता साफ दिख रही थी। इससे पहले मैने तुम्हें इतना खिला हुआ, इतना प्रसन्न और इतना सुंदर कभी न देखा था।

©क्षितिज़ समवर्ती #Sunrise
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क्षितिज़ समवर्ती

काश! समय, पैसा और परिस्थिति हाँथ में होते,
तो आज हमको इस तरह जगना नहीं होता,
हम भी सोते इत्मीनान से
बदलते करवटें, लेते अँगड़ाइयाॅ, देखते सपने,
होते प्रिया के साथ,
बनाते काल्पनिक संसार।

लेकिन दोनों साथ में कैसे मिलेंगे?
असंभव!
समय और पैसा दोनों व्युत्क्रमानुपाती हैं
एक के बढ़ने पर दूसरा कम हो जाता है
नही बैठता दोनों में सामंजस्य।

समय और पैसे की कमतरी के इसी कश-म-कश में उलझा है भविष्य!
उम्र के इक्कीसवे साल में जब मैं सोचता हूँ,
चार-छ: साल तक अगर ऐसा ही रहा,
नही बना पाए सामंजस्य पैसे और समय के बीच
तो अपना क्या होगा????!

©क्षितिज़ समवर्ती #AloneInCity
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क्षितिज़ समवर्ती

लगा एकाध फोटो इंदौर में रहते हुए और खींच लूँ। दिन बदल रहे हैं, मौसम बदल रहा है, दुनिया बदल रही है, संभव है हमारा  रहवास भी बदल जाए! पर इन सब बदलावों के बावजूद इंदौर के लिए दिल में बनी जगह नहीं बदलेगी। युग बदलेगा, हम बदलेंगे, लेकिन इंदौर हमारा दूसरा होमटाउन बना रहेगा। आज धनतेरस है, परसों दिवाली होगी, घर में नहीं हूँ लेकिन फिर भी लग रहा है घर में ही हूँ। चारों तरफ सुनाई देती पटाखों की आवाज मे एक अलग ही जादू है। दुकानों की रौनक, बिल्डिंगों में झिलमिलाते झालर, इंदौरी 'भिया' के चेहरे पर दिखती खुशी, ये सब घर की यादों को मिटा नही सकते, पर कम जरूर कर रहे हैं। जैसे-जैसे इंदौर से दूर जाने का समय नजदीक आता जा रहा है मन की दशा कुछ अजीब सी रहने लग गई है। कुछ तो रिश्ता है इस शहर से ? रिश्ता ना भी हो तब भी जुड़ाव तो है ही। आखिर चार साल बिताए हैं यहां। कहां बिसरेंगे यहां के पोहे-जलेबी और होलकैरियन!

©क्षितिज़ समवर्ती # इंदौर

# इंदौर #Life

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