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दीपांकर तिवारी

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दीपांकर तिवारी

सुविधाओं और उपलब्धियों में अकुलाता मन जब सुकून की तलाश में भटकता है, तो सबसे पहले माँ याद आती है..., माटी याद आती है..., मेघ याद आते हैं..., मन में मीत मचलता है..., चलो... चलें रोजमर्रा की आपाधापी से दूर... महसूस करें अपने अस्तित्व को...! सभ्यताओं के विकास से पूर्व..., नगरीकरण से पहले..., शास्त्रों के संग्रन्थन से पूर्व..., लोक ही तो था... मात्र! और लोक-संस्कृतियां ही जीवन में रंग भरती थीं न...! शास्त्र तो बस लोक में प्रचलित रीतियों के लिए नियम बनाते हैं... वह भी धर्म(कर्तव्य) के लिए..! बहुत बाद में आए हैं शास्त्र... लोक तो पुराना है... पुराना अर्थात् “प्रतिष्ठित”... न! सच कहूँ तो प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व रेखांकित कीर्कगार्ड और नीत्शे के अस्तित्ववाद की याद आ गई! उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में फ्रांस में ईश्वर पर आधारित नीतिशिक्षा का परित्याग कर दिया गया और भौतिकवादी तर्क और बुद्धि को अधिक उपयोगी मानने लगे थे... ऐसे माहौल में अस्तित्ववाद बुद्धिवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया का परिणाम था। अस्तित्ववाद का कहना है कि विज्ञान द्वारा उपलब्ध सारे वाद और सम्पूर्ण ज्ञानराशि(समग्र विश्व में उपलब्ध प्रत्यक्ष/परोक्ष ज्ञान) मानवीय जगत की आधारभूमि के बिना निरर्थक ही रह जाती हैं। 
           आँचलिकता में ही मानवीयता है.... अभावों में ही जीवन की लालसा है.... विरह में ही आस है...., आई फोन, रोबोट, और सुस्वादु भोज्य-पदार्थ में जरूरतें पूरी होती हैं... तृप्ति नहीं मिलती!


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