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sanatanhindudhar3683
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Bhakti Kalptaru

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Bhakti Kalptaru

*।। राम-राम ।।*

_भगवान् आपकी नीयत, भाव, विचार देखते हैं। आपका भाव भगवान्का होगा तो जो कुछ करो, वह भजन हो जायगा।_ 
_*भक्तोंका अनजानपना भगवान्को जितना प्यारा है, उतनी पण्डिताई प्यारी नहीं है-*_

*'जौं बालक कह तोतरि बाता।*
*सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥'* 
(मानस, बाल. ८/५)।

_भगवान् और उनके प्यारे भक्त भावग्राही होते हैं। वे वस्तुओंसे राजी नहीं होते, भावसे राजी होते हैं।_

_(परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज,सीमा के भीतर असीम प्रकाश पुस्तक से,पृष्ठ संख्या १०४)_🙏🏻🙏🏻
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Bhakti Kalptaru

*श्री हरि*


*जो मनुष्य कामना,ममता,आसक्ति आदि से युक्त होकर इंद्रियों के द्वारा भोग भोगता है, उसे यहां भोगों में रमण करने वाला कहा गया है।ऐसा मनुष्य पशु से भी नीचा है; क्योंकि पशु नये पाप नहीं करता; प्रत्युत्तर पहले किए गए पापों का ही फल भोग कर निर्मलता की ओर जाता है। परंतु 'इंद्रियाराम' मनुष्य नए-नए पाप करके पतन की ओर जाता है और साथ ही सृष्टि चक्र में बाधा उत्पन्न करके संपूर्ण सृष्टि को दुख पहुंचाता है।*


*साधक संजीवनी,(लेखक-परम श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज),अध्याय-३, श्लोक संख्या-१६,पृष्ठ १७४*
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Bhakti Kalptaru

.................................. #धर्म
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Bhakti Kalptaru

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ।।
( गीता १७.२२)

अर्थ:- जो दान बिना श्रद्धा के, असत्कारपूर्वक अथवा तिरस्कारपूर्वक, अयोग्य देश-काल में कुपात्र को दिया जाता है, उस दान को तामस दान कहते हैं। #धर्म #सनातन_धर्म
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दातव्यमिति यद्दानं दीयते‌‍ऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ।।
(गीता १७.२०)

अर्थ:- देश, काल और पात्र को ध्यान में रखते हुए, प्रत्युपकार न करने वाले व्यक्ति को निःस्वार्थ भाव से जो दान दिया जाता है, वह सात्त्विक दान है। #धर्म_ज्ञान
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Bhakti Kalptaru

तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेव कलौ युगे।।
 - (पराशर स्मृति )

तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुत्त्मम् ।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकम् कलौ युगे ।। 
- (महाभारत, शांतिपर्व)

तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते ।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकम् कलौयुगे ।। 
- (मनु स्मृति)

अर्थ :- कृतयुग (सत्ययुग) का परम श्रेष्ठ धर्म तप या तपस्या माना गया है जिससे मानव अपने सभी श्रेय एवं प्रेय प्राप्त कर सकता था। त्रेता में ज्ञान प्राप्त करना महान धर्म माना गया है, द्वापर में यज्ञ करना परम धर्म मान्य है और कलियुग में दान को ही महान धर्म माना गया है। #धर्म
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'श्रद्धया देयम्। अश्रद्धयादेयम् श्रिया देयम् ।
ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम् ।'

अर्थात्:- दान श्रद्धापूर्वक करना चाहिये, बिना श्रद्धाके करना उचित नहीं ( श्रद्धया देयम् । अश्रद्धया अदेयम्), अपनी सामर्थ्यके अनुसार उदारतापूर्वक देना चाहिये (श्रिया देयम्), विनम्रतापूर्वक देना चाहिये (ह्रिया देयम् ), दान नहीं करूँगा तो परलोकमें नहीं मिलेगा- इस भयसे देना चाहिये अथवा भगवान ने मुझे देनेयोग्य बनाया है, पर दूसरोंको न देनेपर भगवान को क्या मुँह दिखाऊँगा- इस भयसे देना चाहिये (भिया देयम् ), प्रमादसे या उपेक्षापूर्वक न देकर ज्ञानपूर्वक, विधिपूर्वक, आदरपूर्वक एवं उदारतापूर्वक नि:स्वार्थ भावसे देना चाहिये (संविदा देयम्), चाहे जैसे भी दो, किंतु दान देना चाहिए। मानवजाति के लिए दान परमावश्यक है। दान के बिना मानव की उन्नति अवरुद्ध हो जाती है।

 ( तैत्तिरीयोपनिषद् ) दान महिमा 
#धर्म

दान महिमा #धर्म #विचार

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वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्यं
            आपातमात्रमधुरा विषयोपभोगाः।
प्राणास्तृणाग्रजलविन्दुसमा नराणां
            धर्मः सदा सुहृदहो न विरोधनीयः॥

अर्थ:- इस सम्पूर्ण पृथ्वी का आधिपत्य भी हवा में उड़ने वाले बादल के समान (क्षणभंगुर) है, यह धन-सम्पदा, पद-प्रतिष्ठा सदा बनी रहे ही रहेगी- ऐसा समझना केवल भ्रान्तिमात्र है। इन्द्रियों के विषय-भोग केवल आरम्भ में ही अर्थात् केवल भोगकाल में ही मधुर लगते हैं, उनका अन्त अत्यन्त दुःखदायी है। प्राण तिनके के नोक पर अटके हैं हुए जल की बूंद के समान हैं, किस क्षण निकल जाएँ कोई भरोसा नहीं। एकमात्र धर्माचरण-सत्कर्मानुष्ठान ही ऐसा है, जो मनुष्यों का  सनातन एवं सच्चा मित्र है, अतः उसका कभी विरोध ( तिरस्कार) नहीं करना चाहिये, अपितु अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक दानधर्मादि सत्कर्मानुष्ठान के अनुपालन में सतत संलग्न रहना चाहिये। दान की महिमा

दान की महिमा #विचार

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Bhakti Kalptaru

|| विदुर नीति ||

असूयैकपदं मृत्युरतिवाद: श्रियो वधः ।
    अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्यायाः शत्रवस्त्रयः ।।

भावार्थ:- असूया दोष का होना ( दूसरे के गुणों में भी दोष देखने का स्वभाव होना) मृत्यु के समान है, कठोर बोलना और निंदा करना लक्ष्मी (ऐश्वर्य और सद्बुद्धि) का नाशक है। सुनने की इच्छा का अभाव और गुरु सेवा का अभाव, शीघ्रता करना (अर्थार्थ हर कार्य को हड़बड़ी में करना), और स्वयं की प्रशंसा करना (अर्थार्थ अपने मुहँ मियां मिट्ठू बनना),  ये तीन दोष विद्या के शत्रु हैं। अर्थार्थ इन तीन दोषों के कारण विद्या प्राप्त करने में विघ्न होता है। 

आलस्यं मदमोहौ च चापलं गोष्ठीरेव च । 
   स्तब्धता चाभिमानित्वं तथा त्या गित्वमेव च ।
       एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थीनां मताः ।।

भावार्थ:- आलस्य में पड़े रहना, मादक द्रव्यों का सेवन, मोह /आसक्ति, चंचलता/ उद्दंडता, व्यर्थ बातों में समय बिताना, अभिमान और लोभ ये सात विद्यार्थियों के लिए सदा ही दोष माने गए हैं। 

सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्  ।
    सुखार्थी वा त्यजे्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ।।

भावार्थ:- सुख चाहने वाले को विद्या कहां से मिले? विद्या चाहने वाले को सुख नहीं है। सुखाभिलाषी को विद्या छोड़ देनी चाहिए और विद्या प्राप्ति की इच्छा वाले को सुख। #vidur_niti #विदुर_नीति
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Bhakti Kalptaru

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