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Parasram Arora

मन का क्षितिज #कविता

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एक मेला भरा है मन के क्षितिज पर
भावो कि परते है  न जाने कितनी  इस मन अम्बर पर
ये बहरूपिया मन न जाने कितने रंगो में सजा है.
और वेदना से दबे अधरों में  न जने कैसे जा फंसा है
तर्क वितर्क के आवर्तोमें फंसा ये मन  नजाने कब और कैसे
जा  
धन्सा है
कसमसाती फागुनी आहट का स्वर भी अब इसे
कहाँ  सुनाई  पड़ता है
सुबह होती  सूरज उगता
किन्तु  मन की  झील में  वो सौम्य कमल  कहाँ
खिलता है

©Parasram Arora मन का क्षितिज

Purnima Kaushik

विचारों का अनुलोम अनुलोम विलोम कीजिए

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mute video

shaifali thewriter

प्यार का क्षितिज Love #poerty #MyThoughts #Poetry

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sssssssssssssssssssss

©shaifali thewriter प्यार का क्षितिज

#Love #poerty 
#MyThoughts

Sneh Prem Chand

अनुलोम विलोम #Hope

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काश कोई योग गुरु ऐसा भी होता जो हमें ऐसा
अनुलोम विलोम करना सिखा देता, जिसमें अंदर सांस
लेते हुए संग प्रेम,सौहार्द,अपनत्व और स्नेह ले जाएं,
और बाहर सांस छोड़ते हुए अपने भीतर के ईर्ष्या,द्वेष,
अहंकार,क्रोध,लोभ,काम सब छोड़ देवें।।

दिल की कलम से

©Sneh Prem Chand अनुलोम विलोम

#Hope

नाम थाने मे हैं

क्षितिज #विचार

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us din taala tutega sambhidhaan ki peti kaa
jis din jism nichora jayega kisi neta ki beti ka क्षितिज

Raviraj Sharma

कुदरत का करिश्मा भी ये क्या मंज़र दिखा रहा है ।
देखो-देखो सूरज आज खुद को सागर में गिरा रहा है ।।
                    
                                                      "रवि राज शर्मा" #क्षितिज

Satish Mapatpuri

क्षितिज

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कहाँ क्षितिज के कहीं कुछ भी पार होता है। 
नज़र  को  धोखा   मगर  बार बार होता है।
हमें  यकीन  जहाँ  होता है  वहीं  अक्सर ,
बसन  ये  आबरू  का  तार तार  होता है।
गुलाब को भी सजग हो के चूमिए लब से ,
न  छिल  ये जाए  कहीं ख़ार ख़ार होता है। 
….. सतीश मापतपुरी

©Satish Mapatpuri क्षितिज

Mohit Kothari

 #क्षितिज

Rajesh rajak

क्षितिज,

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व्यथाएं भी व्यथित हो उठती हैं, कभी कभी दर्द भी रो पड़ता है,
खो सी जाती हैं यादें भी यादों में,
सांसें समाहित हो जाती हैं, आहों में,
भयातुर,भय भी हो जाता है भयभीत,
अंधेरा भी खो जाता है स्याह रात में,
नींद को भी आ जाती है चिरनिद्रा एक दिन,
स्थिर चित्त भी आवेश में आ जाता है,फिर स्वम ढूंढ़ता है स्थिरता,
अंकुरित पादप भी पुनः लालायित हो उठता है बीज में समाहित होने,
धरा अपने में समाहित करने हो जाती है आतुर,
स्थूल भी नवनीत सा घुल कर मूल हो जाता है,
बिखरती जाती हैं सांसें,जितना भी समेटो,
नदियां उफान मार कर सागर सा,हो जाती हैं विलुप्त,
आत्मा भी बिलीन हो जाती है,परमात्मा में,
फिर शुरू हो जाता है जीवन मरन का खेल,
फिर जन्म ,फिर मृत्यु,अनवरत,सा चलने बाला दृश्य,
फिर वही दिन,वहीं रात,
वहीं भागम भाग,,शाश्वत सत्य,
जीना इक वहम लेकर, कि मिलते हैं कहीं जमीं आसमां,क्षितिज पर,,,, क्षितिज,
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