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Sangeeta Patidar
मालूम! है चार दिन की ज़िन्दगी, फिर था किस-का इंतज़ार, आख़िरी वक़्त आया नज़र क्यों दिन में तारे दिखने का सार। ता-उम्र पकाई है हर किसी ने यहाँ अढाई चावल की खिचड़ी, आकाश पाताल एक कर, जता रहे हो किस बात का ऐतबार। अब तबियत फड़क उठी, खुल गया भानुमति का पिटारा भी, गुज़ारी ज़िंदगी ज़बानी जमा ख़र्च में,अब क्या इसका आधार? मेंढकी को ज़ुकाम हुआ, जो शहद लगा परवाह चटवा रहे हो? मार रहे हो चाँदी के जूते जो हुआ ऐसा ख़ुदगर्ज़ी का व्यवहार? बैठे थे कान में तेल डाल कर, अब क्यों धुन यह सवार हुई है? घुला-घुला के मारते आए हो, अब दिखावे में, काहे का प्यार। दिन में तारे दिखना- घबरा जाना अढाई चावल की खिचड़ी- अलग-अलग रहना आकाश पाताल एक करना - ख़ूब परिश्रम करना तबियत फड़क उठना - ख़ुश होना भानुम