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Rahul Sontakke
हे मानवा कोकिळा गाते मधुर तुझे सूर बेसूर फुल देते सुंगंध तू आहेस धुंद तुकाराम लावतो कपाळी गंध तू पाहतो दुसऱ्याचे गंध तुझा आहे दुसराच छंद कर तू हे सारे बंद नाहीतर येईल तुझा दुर्गंध तू आहेस मंद कपाळी लाव तू गंध हे मानवा घाल तू तुझ्या मना आळा नाहीतर दाबील तो तुझा गळा म्हणुनी म्हणतो लाव कपाळी टिळा हे मानवा
Akhilesh Kumar
मैं तुम से.... हम बस इतना ही है .... प्रेम अखिलेश ©Akhilesh Kumar देह से देह तक
पूर्वार्थ
देह अति आवश्यक है किंतु यह गंतव्य नहीं माध्यम है दुख होता है जब हम दैहिक विलासिता अर्जित कर , भोग कर स्वयं पर इठलाते हैं हमें लगता है हमनें उसे अर्जित किया, भोगा! सत्य ये है की विलासिता ने हमें अर्जित कर लिया, बिना कोई मोल चुकाये, हमें अपना दास बनाया हमें तप योग्य नहीं रहने दिया हमसे सहनशीलता छीन ली प्रतिक्षा का गुण गौण कर दिया जब हम दो कदम नंगे पाँव नहीं चल पाते चप्पल हंसती है हमपर जब हम एक घंटे की भूख नहीं सह पाते, तो देह अपनी गिरती संभावनाओं पर रोती है जब हमें गौ माता के गोबर से अपनी मौलिकता का एहसास होने के बजाए, बदबू आती है, तो धरती हमें अपनी गोद में पालती नहीं है, बल्कि हमारा बोझ सहन करती है मनुष्य असीम संभावनाओं का स्वामी है, लेकिन एक ऐसा स्वामी जिसे अपनी ही निधि का पता नहीं या पड़ी नहीं कामनाएं, वासनाएं, इक्षाएं, विलासिता ये सब जीवन के महत्वपूर्ण अंग हैं किंतु जीवन नहीं? जीवन एक वृहद संकल्पना है। जब हमारे जीवन का लक्ष्य देह को सुख के साधन उपलब्ध कराना बन जाता है, तो हमें नश्वर सुख की अनुभूति तो अवश्य हो सकती है, किंतु इसमें शाश्वत मन का हर्ष, आत्मा की तृप्तता संभव नहीं। ©purvarth #देह
Manoj Srivastava
एक नदी सी बहती थी उसके देह के अंदर। मैं भी आकुल था, उससे मिलने को समंदर। #देह