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Parasram Arora
एक मासूम सां नन्हा परिंदा भी नए शिशु क़ो जन्म देने के लिये सबसे पहले किसी हरे भरे वृक्ष की सबसे ऊंची और छायादार शाख का चयन करता है जहाँ वो अपने संभावित शिशु क़ो जन्म देने से पहले एक सुखद आरामदेह घोंसले का निर्माण कर ...सके . और ये सब उसके सुखद भविष्य केलिए उसके प्रबंधन का हिस्सा है लेकिन हम अव्यवस्था वाले परिंदे की सोच की न तो सराहना करते है न उनका हम अनुगमन ही करते है ©Parasram Arora प्रबंधन....
Krishna Deo Prasad. ( Advocate ).
मुसीबत में सरल और शांत, धनप्राप्त होने पर ईमानदार , सत्ता में आने पर विनम्र, सहज रहें और क्रोध में शांत रहें, इसे ही तो कहते हैं - "'जीवन प्रबंधन'" ©Krishna Deo Prasad. ( Advocate ). जीवन प्रबंधन ।
Amit Gupta
ये धूप, तू मान मेरी ये धूप, तेरा यूं नित्य बढ़ना लाजमी है मानता हूं मैं, तेरी तपन तुझको मानवों ने ही दिए, जानता हूं मैं पर क्या तू भी बन जाओगी निर्मोही और निष्ठुर तू मान मेरी, कर दे ऐसी सभी नाराजगी तू दूर मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । आकांक्षाओं कि परिसिमा लांघते गए ओ इस कदर पेड़ काटे, पर्वत - पहाड़ तोड़े, और न जाने क्या-क्या किए दर्द तेरी समझता हूं, ऐसे ही नहीं ढा रही तू ये कहर पर तुझसे से तो हमने ना कभी ऐसी उम्मीद किए मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । अच्छे, बुरे, लोभी, लालची, मतलबी चाहे जैसे भी आखिर ये भी तो तेरे संग ही रहते, तू रखे चाहे जैसे भी मान जा, तू जिद न कर, बढ़ तू पर न इस तरह देख, प्रकृति प्रेमियों के भी आंसू बने पसीने कि तरह मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । नन्हे बच्चों की अभी छुट्टियां भी तो नहीं हुई तेरी तपन उन्हें तड़पाती है, न जाऊंगा स्कूल, कहलवाती है ये भविष्य कल के, पढ़ कर समझेंगे तेरी वेदना को तू भी तो समझ बागों से दूर होते इनकी संवेदना को मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । प्रकृति प्रेम @ प्रकृति की तपन
Parasram Arora
क्यों न करे हम साँसो का श्रेश्टम प्रबंधन जबकि एक एक सांस हमारी अर्थपूर्ण बन सकती हैँ जैसे कहीं सहज रूप मे बैठ कर साँसों क़े सुखद विनियोजन से अद्भुत आनंदका अनुभव पाया जा सकता हैँ सांन्स लेने कामतलव केवल किसी तरह से सांस लेना या छोड़ना ही नहींहै जबकि हम सांस क़े प्रति मूर्छित बने रहते हैँ और अपना ध्यान दिमाग़ मे चल रही बेकार की चीजों मे झोंक देते हैँ तभी तो रह जाती हैँ उपेक्षित हमसे . ये सृष्टि और उसके रचियता की अनुपम कृतियाँ साँसो का प्रबंधन.......
Deepali Singh
प्रकृति की हुँकार कब से आस लगाये बैठी थी ये प्रकृति इसे भी मिल जाए सांस लेने की अनुमति धुआँ ही धुआँ दिखता था हर जगह और हो रहे थे ज़ुल्म इसपर बेवजह ढूंढ रही अपने अस्तित्व को जाने कब से, चुप बैठी थी गुमसुम सी इतने वर्षों से ठहरी थी जिंदगी बहुत दूर इससे पर ऐसी बर्बादी कतई ना थी मंज़ूर इसे, रहती थी खोई सी,खामोशियों मे सोई थी उन दूषित गर्म हवाओं में खुद को पिरोई भी काया से इसके लिपट कर वायु ने स्वच्छ शीतल चंचल उड़ान था भरा उन नर्म साँसों में, ठहरी ठंडी रातों में सरसराते इठलाते बहकते पत्तों में, धड़कते पत्थर के उन सहमे दरारों में छुकर अपने धरा के कर कण-कण को मस्ती में इतराते अपने हस्ती पे फ़िर उड़ता चला चुमने गगन को वो मतवाला मनचला बहता चला आज़ाद सोंच में झूमता उठता रहा फिर कैद हुआ कुछ के क्रूर गुरुर से और तड़प रहा गुब्बारों में तो सिलेंडर में सुकून सा देकर तेरे घुँटते फेफड़ों को जो जीवन दिया वो ये वायु ही तो जिताकर तुझे ऐसे जीवन जंग से लौटना है इन्हें उपवन जंगल में जो बनाता रहा दूरी कुदरत से क्या खोया है ज़रा पूछ खुद से प्रकृति के आगे हम मजबूर ठहरे इनकी नज़रों से कुछ भी नहीं परे प्रकृति को हमारी ज़रूरत नहीं पर हमें प्रकृति की ज़रूरत ज़रूर है यूँही नहीं प्रकृति को खुद पर गुरुर है तभी तो प्रकृति खुद मे मगरूर है ©Deepali Singh प्रकृति की हुंकार