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Mayuri Bhosale
समुद्र.... (रहस्यमय न उलगडलेले एक गुपित) उधळती समुद्राच्या वाऱ्याबरोबर लाटा, आतमध्ये दडलेल्या प्रश्नांना मिळतात मनासारख्या वाटा. किनारी ओथंबून वाहे शांत निर्मळ हवा, मेघ बरसती आठवती सुखद क्षणांचा तो गारवा. आकाशाचा रंग तू पांघरलास सभोवती, खळखळाट आवाज पाण्याचा गाणे मंजुळ गाती. आयुष्य हे तुझ्यासारखे खोल रुंद पातळी, स्वतः जळत राहूनही प्रकाश देई मेणबत्ती मधील सुतळी. तुझ्यातील भरती ओहोटीचे कौतुक असे, समुद्राचे ते वेगळेच रूप मग दिसे. भरतीचा नाही कुठला गर्व त्यास, ओहोटीची ही नाही कुठली खंत त्याच्या मनास. रोज नव्याने तू जगुनी घेतो, असला उन्हाळा ही पाटीवर तू झेलतो. रात्री सोबतीस असे चांदण्याचा शिंपलेला सडा, खूप काही शिकण्यासारखे मिळतो जीवनास नवीन धडा. तुझी किती आहे ती अबोल वेगळी भाषा, उमटवतोस जगण्याची नवीन एक आशा. असे तुझे रहस्यमय दडलेले एक गुपित, कधीच न उलगडलेले कोडे सामावून घेऊ आयुष्याच्या मुठीत ©Mayuri Bhosale #समुद्र
Anjali Singhal
"तेरे ख़्याल में डूबकर, बहता-बहाता बचता-बचाता, मोहब्बत के साहिल पर आकर, बैठ जाता है मेरे मन का शायर। तेज होती साँसों को लहरों सा सुनकर, समु
read moregudiya
Nature Quotes आज इस्लाम जब मैं भेजता खड़ा हूं आसमान और धरती के बीच तब तब अचानक मुझे लगता है यही तो तुम हो मेरी मां मेरी मातृभूमि धान के पौधों ने तुम्हें इतना ढक दिया है कि मुझे रास्ता तक नहीं सुझता और मैं मेले में कोई बच्चे सा दौड़ता हूं तुम्हारी ओर जैसे वह समुद्र जो दौड़ता आ रहा है छाती के सारे बटन खोले हाहाता और उठती हैं शंख ध्वनि कंधराओं के अंधकार को हिलोडती यह बकरियां जो पहली बूंद गिरते ही भाग और छप गई पेड़ की ओट में सिंधु घाटी का वह सेंड चौड़े पत्ते वाला जो भीगा जा रहा है पूरी सड़क छेके वे मजदूर जो सुख रहे हैं बारिश मिट्टी के ढीले की तरह घर के आंगन में वह नवोढ़ा भीगती नाचती और काले पंखों के नीचे कौवों के सफेद रोए तक भीगते और इलायची के छोटे-छोटे दाने इतने प्यार से गुथंम गुत्था यह सब तुम ही तो हो कई दिनों से भूखा प्यासा तुम्हें ही तो ढूंढ रहा था चारों तरफ आज जब भी की मुट्ठी भर आज अनाज भी भी दुर्लभहै तब चारों तरफ क्यों इतनी बाप फैल रही है गरम रोटी की लगता है मेरी मां आ रही है नकाशी दार रुमाल से ढकी तश्तरी में खुबानीनिया अखरोट मखाने और काजू भरे लगता है मेरी मां आ रही है हाथ में गर्म दूध का गिलास लिए यह सारे बच्चे तुम्हारी रसोई की चौखट पर कब से खड़े हैंमां धरती का रंग हरा होता है फिर सुनहला फिर धूसर छप्परों से इतना धुआं उठता है और गिर जाता है पर वहीं के वहीं हैं घर से निकले यह बच्चेतुम्हारी देहरी पर सर टेक सो रहे हैं मां यह बच्चे कालाहांडी के यह आंध्र के किसानों के बच्चे यह पलामू के पटन नरोदा पटिया के यह यदि यह यतीमअनाथ यह बंदहुआ उनके माथे पर हाथ फेर दो मां इनके भीगी के सवार दो अपने श्यामलहाथों से तुम कितनी तुम किसकी मन हो मेरी मातृभूमि मेरे थके माथे पर हाथ फेरती तुम ही तो हो मुझे प्यार से तख्ती और मैं भेज रहा हूं नाच रही धरती नाच आसमान मेरी कल पर नाच नाच मैं खड़ा रहा भेजता बीचो-बीच। -अरुण कमल ©gudiya #NatureQuotes #मातृभूमि #Nojoto #nojotoquote #nojotohindi #nojotophoto #nojoyopoetry आज इस्लाम जब मैं भेजता खड़ा हूं आसमान और धरती के बीच
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