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रजनीश "स्वच्छंद"
शादी, हाँ भाई मेरी।। समाज चित्रण।। फोन की घण्टी बजी है देखो, अरमानों की डोली सजी है देखो। हमे पता घर सब आते थे, लड़की की फ़ोटो रख जाते थे। बोली मेरी लगी थी लगने, मां बाप लगे थे मेरे चहकने। और हम, हाय, चाल लगे थे मेरे बहकने। बाजार का भाव पता करा था, फिर बकरे ने घास चरा था। झूठी तनख्वाह झूठे पेपर, ले कर्जा और बढ़े थे तेवर। खरीददार हर रोज़ थे आते, ठोक पीटकर भाव लगाते। गली मोहल्ले में भी जाते, चाल चलन का पता लगाते। हर कोई बना हितैषी था, लड़का तो मानो गाय-भैंसी था। एक मेरे भी चाचा थे, वो मंथरा का साँचा थे। आग नहीं पर जलते थे, शकुनि की माफिक चलते थे। एक लड़की का पिता था आया, पहले हज़ार का नोट थमाया। मां मुंह बिचका बोली कंजूस बड़ा है, कार नहीं मोटर साईकल पे अड़ा है। चाचा बल खाते आये, मेरी कर्म कुंडली संग लाये। मां बोली जरा भगाओ उनको, बीड़ी दे चलता कराओ उनको। नाश करेगा खेल ये सारा, प्लान करेगा फैल ये सारा। चाचा आकर बोले कानों में, पहुंच है इसकी सारे थानों में, सुन कर मां मेरी घबराई, हाय नाशपीटा निकला ये सिपाही। कानून कहीं उसने भी सुना था, फ्री शादी को मेरा बेटा ही चुना था। बोल रही थी कानों में, आवाज़ जरा बस ऊंची थी। दहेज नहीं और दान नहीं, पर मांगों की लंबी सूची थी। चाचा ने भी सुर मिलाया, मां को एक्स्ट्रा फ्रीज दिलाया। फिर बोले वो इठलाकर, भाभी दो रोटी घी पिघला कर। सब थे खुश मैं भी था खुश, आत्मा थी छलांगे मार रही। ज्ञान रहा पन्नो में सिमटा, बुद्धि लक्ष्मी से हार रही। क्यूँ हुई थी लड़की भार ये बोलो, क्यूँ रही थी व्यवस्था हार ये बोलो। चलो जरा हुंकार ये बोलो। मां बहनों को पुकार ये बोलो। बोझ नहीं बिटिया रानी है, ये बड़ी विदुषी बड़ी ज्ञानी है। हर मां बाप जरा सुन लो, दुर्बुद्धि पे दे पहरा सुन लो। अब भेद नहीं नर नारी में, पहने जीन्स, रहे या सारी में। अब सीता का त्याग न होगा, न लगे द्रौपदी दांव पर। बहुत सहा है बहुत दबी है, नमक न छिड़को घाव पर। बस गांठ बांध लो इतना आप, दहेजप्रथा है एक अभिशाप। ©रजनीश "स्वछंद" शादी, हाँ भाई मेरी।। समाज चित्रण।। फोन की घण्टी बजी है देखो, अरमानों की डोली सजी है देखो। हमे पता घर सब आते थे, लड़की की फ़ोटो रख जाते थे। ब