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Shiv gopal awasthi
ऐसा पढ़ना भी क्या पढ़ना,मन की पुस्तक पढ़ न पाए, भले चढ़े हों रोज हिमालय,घर की सीढ़ी चढ़ न पाए। पता चला है बढ़े बहुत हैं,शोहरत भी है खूब कमाई, लेकिन दिशा गलत थी उनकी,सही दिशा में बढ़ न पाए। बाँट रहे थे मृदु मुस्कानें,मेरे हिस्से डाँट लिखी थी, सोच रहा था उनसे लड़ना ,प्रेम विवश हम लड़ न पाए। उनका ये सौभाग्य कहूँ या,अपना ही दुर्भाग्य कहूँ मैं, दोष सभी थे उनके लेकिन,उनके मत्थे मढ़ न पाए। थे शर्मीले हम स्वभाव से,प्रेम पत्र तक लिखे न हमने। चंद्र रश्मियाँ चुगीं हमेशा,सपनें भी हम गढ़ न पाए। कवि-शिव गोपाल अवस्थी ©Shiv gopal awasthi कविता
shailesh pandit intijaar
मेरे आस पास के फूल अब मरने वाले है वो खुशबू बिखेरने वाला शक्स मेरे पास से नहीं गुजरता ©shailesh pandit #फूल
Bajinder Thakur
वह कितने समय से लोगों का अप्रैल फूल बना रहा था लाखों गम थे पास उसके और मुस्कुरा रहा था ©Bajinder Thakur अप्रैल फूल
Jain Saroj
में थी और शायद तू भी… शायद एक सांस के फासले पर खड़ा शायद एक नज़र के अँधेरे पे बैठा शायद एहसास के एक मोड़ पर चल रहा पर वह पुराने-ऐतिहासिक समय की बात है ©Saroj Patwa #कविता