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Harpinder Kaur
इंसान ने कितना कुछ बदल दिया प्रकृति को बदलने के लिए पर ये ना सोचा कि जिस दिन प्रकृति बदलेगी उस दिन क्या होगा बस होगा वही जो चाहेगी प्रकृति करना और प्रकृति क्या क्या कर सकती है ये कोई नहीं जानता कैसे जान सकता है कोई कि प्रकृति भी कुछ कर सकती है अगर ये समझ गए होते कि बहुत कुछ कर सकती है प्रकृति तो.... यूँ ना छलते तुम प्रकृति ©Harpinder Kaur # क्या है प्रकृति?
Shreya Joshi
प्रकृति की लीला है न्यारी, किसी बीज से फलों का अंबार लगाती धरती मां हमारी, तो किसी से फूलों से भर जाती फुलवारी, प्रकृति की लीला है न्यारी। प्रकृति की लीला से अनेक रूप लेता है वारि, नदी में मीठा तो सागर में खारा, वारि ऐसा है गुणधारी, प्रकृति की लीला है न्यारी। कोई खाता अन्न और फल, तो कोई है मांसाहारी, मानव हो या जीव सभी प्रकृति के आभारी, प्रकृति की लीला है न्यारी। ©Shreya Joshi # प्रकृति की लीला है न्यारी
गौतम विश्वकर्मा
पुष्प प्रकृति की शोभा है। पुष्प प्रकृति की शोभा है।
Parasram Arora
ऎसा मैने कभी सोचा भी नहीं था कि शहर मे घुमक्क्ड सूअर का झुण्ड समाजशास्त्र के लिए चर्चा का विषय बन सकता हैँ क्यों कि एक दिन जब मैने देखा कूड़े का डस्टबिन कूड़े की भ्रावक्षमता के उच्चतम शिखर आ चुका था . तो उस कूड़े को पाने के लिए सूअरों का झुण्ड अपने पेट मे पलते हुए बच्चो के लिए चिंघाड़ रहे थे ! समाजशास्त्र का विषय.......
Amit Gupta
ये धूप, तू मान मेरी ये धूप, तेरा यूं नित्य बढ़ना लाजमी है मानता हूं मैं, तेरी तपन तुझको मानवों ने ही दिए, जानता हूं मैं पर क्या तू भी बन जाओगी निर्मोही और निष्ठुर तू मान मेरी, कर दे ऐसी सभी नाराजगी तू दूर मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । आकांक्षाओं कि परिसिमा लांघते गए ओ इस कदर पेड़ काटे, पर्वत - पहाड़ तोड़े, और न जाने क्या-क्या किए दर्द तेरी समझता हूं, ऐसे ही नहीं ढा रही तू ये कहर पर तुझसे से तो हमने ना कभी ऐसी उम्मीद किए मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । अच्छे, बुरे, लोभी, लालची, मतलबी चाहे जैसे भी आखिर ये भी तो तेरे संग ही रहते, तू रखे चाहे जैसे भी मान जा, तू जिद न कर, बढ़ तू पर न इस तरह देख, प्रकृति प्रेमियों के भी आंसू बने पसीने कि तरह मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । नन्हे बच्चों की अभी छुट्टियां भी तो नहीं हुई तेरी तपन उन्हें तड़पाती है, न जाऊंगा स्कूल, कहलवाती है ये भविष्य कल के, पढ़ कर समझेंगे तेरी वेदना को तू भी तो समझ बागों से दूर होते इनकी संवेदना को मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । प्रकृति प्रेम @ प्रकृति की तपन
Sanjay Sahu
"प्रकृति के रंग" इस फिज़ा में कुछ रंग मिलाओं, प्रकृति का भी मन बहलाओं। देती है वो नित्य नव जीवन, उसको भी तो सुंदर बनाओं। अपने जीवन में करें हम प्रण, हर शुभ अवसर पर लगें एक वृक्ष। आओं मिलकर लें फिर संकल्प, प्रकृति के लिए हों नित्य नया कर्म। ✍मेरे विचार... #प्रकृति की सुरक्षा भी हमारी जिम्मेदारी है।
Deepali Singh
प्रकृति की हुँकार कब से आस लगाये बैठी थी ये प्रकृति इसे भी मिल जाए सांस लेने की अनुमति धुआँ ही धुआँ दिखता था हर जगह और हो रहे थे ज़ुल्म इसपर बेवजह ढूंढ रही अपने अस्तित्व को जाने कब से, चुप बैठी थी गुमसुम सी इतने वर्षों से ठहरी थी जिंदगी बहुत दूर इससे पर ऐसी बर्बादी कतई ना थी मंज़ूर इसे, रहती थी खोई सी,खामोशियों मे सोई थी उन दूषित गर्म हवाओं में खुद को पिरोई भी काया से इसके लिपट कर वायु ने स्वच्छ शीतल चंचल उड़ान था भरा उन नर्म साँसों में, ठहरी ठंडी रातों में सरसराते इठलाते बहकते पत्तों में, धड़कते पत्थर के उन सहमे दरारों में छुकर अपने धरा के कर कण-कण को मस्ती में इतराते अपने हस्ती पे फ़िर उड़ता चला चुमने गगन को वो मतवाला मनचला बहता चला आज़ाद सोंच में झूमता उठता रहा फिर कैद हुआ कुछ के क्रूर गुरुर से और तड़प रहा गुब्बारों में तो सिलेंडर में सुकून सा देकर तेरे घुँटते फेफड़ों को जो जीवन दिया वो ये वायु ही तो जिताकर तुझे ऐसे जीवन जंग से लौटना है इन्हें उपवन जंगल में जो बनाता रहा दूरी कुदरत से क्या खोया है ज़रा पूछ खुद से प्रकृति के आगे हम मजबूर ठहरे इनकी नज़रों से कुछ भी नहीं परे प्रकृति को हमारी ज़रूरत नहीं पर हमें प्रकृति की ज़रूरत ज़रूर है यूँही नहीं प्रकृति को खुद पर गुरुर है तभी तो प्रकृति खुद मे मगरूर है ©Deepali Singh प्रकृति की हुंकार