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Alok Vishwakarma "आर्ष"
उदास मन उदास जन उदासी हर भाव में, उदास क्षण उदास प्रण उदासी पथराव में । उदास मृत्यु औ जिवन उदासी उर गाँव में, उदास सूर्य का सनन उदासी प्रित छाँव में ।। प्रकाश घन प्रकाश वन प्रकाशित विज्ञान में, प्रकाश आत्म उन्नयन प्रकाशित परिधान में । प्रकाश बाँसुरी श्रवण प्रकाश चिद् उड़ान में, प्रकाश आर्ष का वरण प्रकाश रश्मि आन में ।। उदासीनता से प्रकाश तक की यात्रा को वर्णित करती एक प्रदीप्त कविता.. 🙏🙏 #missyou #हमारीज़िन्दगी #yqemotions #yqdidi #yqhindi #yqbabuaa #yqlove
Sunita Bishnolia
Sunita Bishnolia
मैं नियरे बैठी गहरे सागर, फिर भी खाली है मन गागर। मन में उठती उन्माद लहर, तटबंधन तोड़ चली आतुर। उद्वेग का झरना बहता मन, शशि किरणें भी झुलसाए
Seema Katoch
मेरे अपने..... उत्सव बन जाता जीवन का सफर, स्वयं को पाती हूं और भी सक्षम, जब होता है अपने आस पास अपनों के होने का एहसास..... खामोशी जब डराने लगती है और एकाकीपन भयभीत करता है, प्रदीप्त कर लेती हूं हर राह अपनत्व के आलोक से.... कुछ सजे नाम से तो कुछ बेनाम भी, कई रंगों में महकते... सबको रखती हूं स्वार्थवश सहेज कर आंखों की नमी प्यार की गर्माहट से..... शायद हूं.. उस लता की मानिंद जो गर्व से मस्तक उठा बढ़ती जाती पेड़ का आश्रय पाकर ।। मेरे अपने..... उत्सव बन जाता जीवन का सफर, स्वयं को पाती हूं और भी सक्षम, जब होता है अपने आस पास अपनों के
Divyanshu Pathak
सुनो मैं ईश्वर को प्रेम लिखता हूँ क्योंकि वह भाव है देने का उसी तरह जीवन दिया है बिना कुछ लिए दिया है ना ! इसे स्वीकारते हो या नही हाँ तो कुछ भी छीना नही अब तुम्हें प्रेम से ही इसे विस्तार देना है ! कुछ को विशेष मानकर स्वयं जोड़ लेता है आशाएं अपने लिये कुछ उम्मीदें भी महत्वकांक्षाऐं लेकर पड़ता है बंधन में और दोष प्रेम पर रख स्वयं को निर्दोष साबित करता है ! 😊💕#good night💕😊 : प्रेम प्रदीप्ति हृदय में हो तो क्या भूख क्या प्यास ? जठराग्नि को बल ही नही मधुरता के आभास से तृप्त स्वयं की सुध रहती ही कब
Vikas Sharma Shivaaya'
✒️📙जीवन की पाठशाला 📖🖋️ 🙏 मेरे सतगुरु श्री बाबा लाल दयाल जी महाराज की जय 🌹 जीवन चक्र ने मुझे सिखाया की आजकल सभी जगह शादी-पार्टियों में खड़े होकर भोजन करने का रिवाज चल पडा है लेकिन हमारे शास्त्र कहते हैं कि हमें नीचे बैठकर ही भोजन करना चाहिए । खड़े होकर भोजन करने से हानियाँ तथा पंगत में बैठकर भोजन करने से जो लाभ हैं वे निम्नानुसार है:- (1) यह आदत असुरों की है । इसलिए इसे ‘राक्षसी भोजन पद्धति’ कहा जाता है । (2) इसमें पेट, पैर व आँतों पर तनाव पड़ता है, जिससे गैस, कब्ज, मंदाग्नि, अपचन जैसे अनेक उदर-विकार व घुटनों का दर्द, कमरदर्द आदि उत्पन्न होते हैं । कब्ज अधिकतर बीमारियों का मूल है । (3) इससे जठराग्नि मंद हो जाती है, जिससे अन्न का सम्यक् पाचन न होकर अजीर्णजन्य कई रोग उत्पन्न होते हैं । (4) इससे हृदय पर अतिरिक्त भार पड़ता है, जिससे हृदयरोगों की सम्भावनाएँ बढ़ती हैं । (5) पैरों में जूते-चप्पल होने से पैर गरम रहते हैं । इससे शरीर की पूरी गर्मी जठराग्नि को प्रदीप्त करने में नहीं लग पाती । (6) बार-बार कतार में लगने से बचने के लिए थाली में अधिक भोजन भर लिया जाता है, फिर या तो उसे जबरदस्ती ठूँस-ठूँसकर खाया जाता है जो अनेक रोगों का कारण बन जाता है अथवा अन्न का अपमान करते हुए फेंक दिया जाता है । (7) जिस पात्र में भोजन रखा जाता है, वह सदैव पवित्र होना चाहिए लेकिन इस परम्परा में जूठे हाथों के लगने से अन्न के पात्र अपवित्र हो जाते हैं । इससे खिलानेवाले के पुण्य नाश होते हैं और खानेवालों का मन भी खिन्न-उद्विग्न रहता है (8) हो-हल्ले के वातावरण में खड़े होकर भोजन करने से बाद में थकान और उबान महसूस होती है । मन में भी वैसे ही शोर-शराबे के संस्कार भर जाते हैं । जीवन चक्र ने मुझे सिखाया की बैठ कर (या पंगत में) भोजन करने से लाभ:- (1) इसे ‘दैवी भोजन पद्धति’ कहा जाता है । (2) इसमें पैर, पेट व आँतों की उचित स्थिति होने से उन पर तनाव नहीं पड़ता । (3) इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है, अन्न का पाचन सुलभता से होता है । (4) हृदय पर भार नहीं पड़ता । (5) आयुर्वेद के अनुसार भोजन करते समय पैर ठंडे रहने चाहिए । इससे जठराग्नि प्रदीप्त होने में मदद मिलती है । इसीलिए हमारे देश में भोजन करने से पहले हाथ-पैर धोने की परम्परा है । (6) पंगत में एक परोसनेवाला होता है, जिससे व्यक्ति अपनी जरूरत के अनुसार भोजन लेता है । उचित मात्रा में भोजन लेने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है व भोजन का भी अपमान नहीं होता । (7) भोजन परोसनेवाले अलग होते हैं, जिससे भोजनपात्रों को जूठे हाथ नहीं लगते । भोजन तो पवित्र रहता ही है, साथ ही खाने-खिलानेवाले दोनों का मन आनंदित रहता है ॥ (8) शांतिपूर्वक पंगत में बैठकर भोजन करने से मन में शांति बनी रहती है, थकान-उबान भी महसूस नहीं होती । बाकी कल ,खतरा अभी टला नहीं है ,दो गज की दूरी और मास्क 😷 है जरूरी ....सावधान रहिये -सतर्क रहिये -निस्वार्थ नेक कर्म कीजिये -अपने इष्ट -सतगुरु को अपने आप को समर्पित कर दीजिये ....! 🙏सुप्रभात 🌹 आपका दिन शुभ हो विकास शर्मा'"शिवाया" 🔱जयपुर -राजस्थान 🔱 ©Vikas Sharma Shivaaya' ✒️📙जीवन की पाठशाला 📖🖋️ 🙏 मेरे सतगुरु श्री बाबा लाल दयाल जी महाराज की जय 🌹 जीवन चक्र ने मुझे सिखाया की आजकल सभी जगह शादी-पार्टियों में खड़े
Insprational Qoute
ख़ुद में झांक कर देखा कभी,देख लिया संसार, उर से उर्जित ऊर्जा का करो संरक्षण, न कर तू विनाश यही है ऊर्जा संचार, ख़ुद में झांक कर देखा कभी,देख लिया संसार, सम्पूर्ण पँक्तियाँ अनुशीर्षक में पढ़े। ख़ुद में झांक कर देखा कभी,देख लिया संसार, उर से उर्जित ऊर्जा का करो संरक्षण, न कर तू विनाश यही है ऊर्जा संचार, ख़ुद में झांक कर देखा कभी,देख
Nisheeth pandey
कला और मैं ---------------- तुम कला हो मैं कलाकार हूँ .. तुम ख्वाब , मैं पटल पे उकेरने वाला चित्रकार हूँ .. तुम फिसलते सौंदर्य से , मैं हृदय औ मस्तिष्क में प्रदीप्त हूँ.. अहम न करो कि तुम अलौकिक हो , मुझ बिन आश्रित खोखले निरालंब हो .. जानता हूँ तुम वाचाल हो , मैं गंभीर एकांत हूँ .. देखती है तुम्हें जन मानस .. गुनती है मुझे , बार बार कर मेरी ही आवृत्ति .. कल्पना का आकार हो तुम .. संरचना में उलझे हो तुम .. जन्म दाता हूँ मैं .. रंगों और शब्दों से सुलझता हूँ मैं .... मेरे लिये चित्र रचना खेल है , दर्शन की छाया सुशीतल , आह्लादक पुष्पित बसन्त है .. तुम गुंजित हो , मैं गुंफित .. तुम मुखर हो , मैं प्रखर .. हाँ तूम ठहराव हो , मैं हूँ विचलित धारा .. किंतु क्या तुम एक विचार हो.. और मैं स्वमं अनन्त विचारों में भ्रमित हूँ ? कला का सौंदर्य अर्थ में है अर्थ का अस्तित्व शब्द में चित्र का शून्य में लोप होना अर्थ का शब्द में विलोप होना है .. सुनो न क्या संग संग साथ चलें हम .. तुम ही मुझमें , मैं तुझमें पनपता हूँ तुम मेरी यकीनन प्यास हो .. मैं तुम्हारा असीम हूँ .. तुम मेरे रंग का आत्मा हो ... मैं तेरा रचैता ब्रह्म हूँ .. I #निशीथ ©Nisheeth pandey कला और मैं ---------------- तुम कला हो मैं कलाकार हूँ .. तुम ख्वाब , मैं पटल पे उकेरने वाला चित्रकार हूँ .. तुम फिसलते सौंदर्य से , मैं ह
संतृप्त
अस्तित्व हर किसी के समुद्र रूपी जीवन में कभी न कभी एक ऐसा तूफ़ान ज़रूर आता है जब चारों तरफ़ तिमिर की अनुभूति में अंत का आभास होने लगता है, जब हम चाहते ह
Divyanshu Pathak
'मैं धरा तुम धूप'-03 तुम धूप काहे कर्क रेखा चूमते हो! अक्ष पर रुकते मकर को भूलते हो। एक वक्त में एकसाथ सबके हो नहीं बंजारा बनके क्यों धरा पर घूमते हो! तुम धरा सी घूमती अपनी धुरी पर धूप सा मुझको बताकर झूमती हो मैं अड़िग स्थिर हमेशा ही रहा पर तुम मुझे लेकर ध्रुवों तक दौड़ती हो। मैं रहूँ सापेक्ष विषुवत वृत्त के ही क्यों प्रदीपन पट्ट से तुम जोड़ती हो? उत्तरी कभी दक्षिणी अयनांत पर तुम आधी रात को सूरज इसी से देखती हो। परिभ्रमण का चाब तेरा ही ग़ज़ब है। परिक्रमण से भाव ऋतु होती सजग है। उत्तरी गोलार्ध वासंती विषुभ है तो दक्षिणी गोलार्ध में होता शरद् है। मैं धरा तुम धूप'-03 तुम धूप काहे कर्क रेखा चूमते हो! अक्ष पर रुकते मकर को भूलते हो। एक वक्त में एकसाथ सबके हो नहीं बंजारा बनके क्यों धरा पर