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Preeti Karn
चिंतनरत अवधारणा में सहज मन के प्राणपण में मुक्ति का प्रयास जीवन क्यों विरोधाभास रे मन.... तुमुल कोलाहल की पीड़ा अव्यक्त अजन्मे अवसाद विप्लव अनंत की संभावना में अल्प का आभास जीवन क्यों विरोधाभास रे मन.... सूखती जलधार मन की क्षीण होती शाखाएं तन की भावों के मरूखेत में लुप्तप्राय प्रस्फुटन अंकुरण क्यों विरोधाभास रे मन.... दग्ध अवनि विकल दृष्टि निहारती अपलक क्षिति वेदना संतृप्त प्राणों में विकल नैराश्य आकुंचन व्यर्थ ही संत्रास जीवन क्यों विरोधाभास रे मन... प्रीति #तुमुल कोलाहल: सांसारिक क्लेश कलह आकुंचन :सिमटी दग्ध: जला हुआ विप्लव : उपद्रव अवनि : धरती क्षिति : आकाश नैराश्य :निराशा संत्रास : अत्यंत भ
Somya Baranwal
वजूद Read the caption मैं हूं..... होना मेरा है मेरे लिए केवल... रोशनी नहीं चाहती प्रमाणपत्र अंधेरों के, मेरा वजूद है मेरे लिए केवल। मैं शेयर करती हूं
Darshan Blon
कुछ बात नयी है इस सुबह की के हंस रहा है सूरज भी गगनमे, कुछ अलग ही है ताज़गी हवा में के नाच रहे हैं कलियां भी मेरे चमन में! उठो! खोलो आंखें अपनी आया है सूरज तुमसे करने को मुलाकात, संत्रास संदेह को त्याग दो अब ढल चुकी है वो काली रात! नए उम्मीद और जोश से तुम भी करलो अब एक नयी सुरुआत, नाकामियों की हर अंधेरे को रोशन करने सृजित हुआ है ये नवीन प्रभात! कुछ बात नयी है इस सुबह की के हंस रहा है सूरज भी गगनमे, कुछ अलग ही है ताज़गी हवा में के नाच रहे हैं कलियां भी मेरे चमन में! उठो! खोलो आंखें
Sanjay Sharma Saras
मुझे विदित विधना ने अनादि से मेरा वनवास लिखा है, कैसे वरण करूँ सीते मैं जनम-जनम संत्रास लिखा है। मेरा प्रेम नहीं सांसारिक ईश-मिलन का हेतु है, मुझको ऐसा संग मिला जो चारधाम का सेतु है। मेरा प्रेम शिला-शापित सा छूकर उसे अहिल्या करना, सियाराम की रटन लगाये भवसागर से पार उतरना। ©Sanjay Sharma Saras गीत की पंक्तियां भगवान श्रीराम के जीवन से प्रेरित होकर उन्हीं की अतीव कृपा से मुझ अकिंचन दास की तुच्छ कलम ने एक अधूरा सा गीत-सृजन लिखा था, स
Dr Jayanti Pandey
कैसी भी हो परीक्षा पूरी करनी हो कोई इच्छा बॉस की करनी हो समीक्षा या अन्य कोई संत्रास हो, सारा रायता सिमटाने को मित्र जरूरी है। जब मन में भ्रम कोई आए मन अपने पर इतराए; उड़ने की हसरत जागे और खुशामद सच लागे, तो टंगड़ी लगाकर फिर धरती पर लाने को मित्र जरूरी है। (पूरी रचना अनुशीर्षक में पढ़ें) मित्रता दिवस की सभी को शुभकामनाएं उम्र की शैतानी हो या बड़ी विकट परेशानी हो दुनिया की आनाकानी हो हो कोई संकट,
प्रियदर्शन कुमार
काव्य संख्या-149 ---------------------------------------- व्यक्ति परिवार समाज अंर्तसंबंध ---------------------------------------- व्यक्ति से
Priya Kumari Niharika
शीर्षक: आजादी का मोहभंग 15 अगस्त से आप क्या समझते हैं। रेडियो की आकाशवाणी, डीडी नेशनल की परेड, स्कूल की लॉजिस, या गरमा गरम जलेबी क्यूँ सही कहा ना मुस्कुराईये नहीं...... आप गुलाम है, यकीन नहीं आ रहा ना , चलिए बताती हूँ......, जी हाँ ये सच है कि आप गुलाम हैं, उस विचार के..... जिसपर 'क्या कहेंगे लोग' जैसे वाक्य का अधिकार है जी हाँ आप उस मोहमाया में जी रहे है,जिसकी सत्ता या तो आपके आसपास है या आपकी कल्पना ने उसे ग़ढ़ा है। और बेशक़ आप समाज के रूढ़िगत नियम, कानून, रीति, परम्परा की ऐसे जंजीर से बंधे है,जिसे तोड़ने की छटपटाहट युगों युगों से निरंतर जारी है। और ये कहना बेशक गलत नहीं होगा,कि आज भी आपका शोषण यूँही चुटकीयों में हो रहा है,बशर्ते आप उसे समझें। क्यूंकि सामाजिक विषमता, आर्थिक दुर्बलता, धार्मिक मुठभेड़,उपभोक्तावादी एवं पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, शासन प्रशासन का सडयंत्र, भ्रष्टाचार, अन्याय, समाज के अराजक तत्व,और रूढ़ियों को भी सांस्कृतिक परंपरा के रूप में ढोने की प्रकृति, इतना ही नहीं लोकतंत्र में भी अपनी बुद्धिमत्ता से मतदान देने के स्थान पर,मतदान चिन्ह और प्रतिनिधि के चेहरे को प्राथमिकता देने की प्रवृति,साथ ही असुरक्षा का भय की सल्तनत हर कदम पर आपका शोषण करके आपको लाचार बना कर,आपके विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं,और तो और,हम अपनी अनैतिकता को नैतिकता के नकाब पहनाने में ऐसे खो गए है, कि हमारी नैतिकता कितनी प्रतिशत नैतिक है,इस पर भी प्रश्नचिन्ह लगा पाते हैं, खैर.... .क्या हमने ऐसी ही आजादी का स्वप्न देखा था? क्या इसके लिए ही नवजागरण और क्रांति की लहर चरम पर थी, या फिर बड़े-बड़े आंदोलन,क्रान्तिकारीयों को फाँसी, या जालियांवाला बाग में लाशों का तख्त, या 46 का बंगाल नरसंहार या विभाजन के समय रेल नरसंहार,देश के टुकड़े, विभाजन की त्रासदी, विस्थापन का संत्रास और भीषण रक्तपात क्या वाकई इसी आजादी के लिए था? मैं आजकल जब आजादी के विषय में सोचती हूँ,तो पाती हूँ कि वर्षों पहले के आजादी के स्वप्न की वास्तविकता, इतनी विकृत,भीषण और दर्दनाक है,कि जिसकी कल्पनामात्र से हम मायूस,हताश और निर्बल हो जाते है। जहाँ देश की विकास जीडीपी से निर्धारित होती है,वहीं कचड़े के डब्बे से टुकड़ों की तलाश में कुत्तों से छिनाझपटी करती है जिन्दगी...जहाँ बारिश में चाय और शेरों शायरी की लुफ्त उठायी जाती है, वहीं फूस का आशियाँ गल जाता है, कागज की नाव के समान............. और भींगती,ठिठुरती गुजरती है,जिंदगी.... जिसने शरणागत को भी शरण दिया, वहीं सड़के और प्लेटफार्म पर रहती है जिन्दगी.... जहाँ वस्त्र,आभूषण गरीमा का प्रतीक माने जाते हैं वहीं चिथड़ों को सीलकर सवरती है जिन्दगी... जहां बुद्ध,द्रोण, चाणक्य जैसे ज्ञानी हुए,वहाँ शिक्षा व्यावहारिक ज्ञान, व्यक्तित्व एवं कौशल विकास को छोड़कर अकादमीक डिग्री पर आधारित एक व्यापार बन कर रह गया, इसलिए बेरोजगारी का दंश झेलती है जिन्दगी.... जहां महामारी के दौरान, संवाददाता के रिपोर्टिंग लाइव से अनगिनत टीआरपी बटोरी जाती है वहीं साधन,इलाज सुरक्षा के आभाव और महंगाई और कर्फ्यू की चपेट में दम तोड़ती है जिन्दगी. जिस लोकतंत्र में समान अधिकार का दावा किया जाता है, वहीं समाज, धर्म,अर्थव्यवस्था और राजनीति उसकी हत्या करने से कभी बाज नहीं आते... जहाँ प्रशासन, सशस्त्र बल, सुरक्षा कर्मचारी, सिपाहीयों की कोई कमी नहीं, वहीं की जनता स्वयं को असुरक्षित और डरा हुआ पाती है और हर घड़ी शहर,सड़क, गालियारे से डरती है जिन्दगी,और तो और जहाँ विविधता में एकता के आदर्श है, वहाँ समाज, धर्म, अर्थव्यवस्था, संस्कृति प्रकृति और प्रवृति के आधार पर टुकड़ों में बटी पड़ी है जिन्दगी.... तो बताइए, जब हमारी प्राथमिकताओं पर ही प्रश्न चिन्ह लगा है, तो हम अपनी आशाओं महत्वाकांक्षाओं और लक्ष्य का क्या ही ब्यौरा लगाए। तो क्या यही लोकतंत्र है, जहां केवल राजनीतिक विकास होता है,जीवन का विकास नहीं? क्या यह वही अधिकार है,जो केवल शक्तिशाली और अमीरों के लिए है, शेष के लिए नहीं? क्या यही हमारी आजादी है,जिससे नीति, तंत्र और चेहरे तो बदल गए,मगर शोषण है वही? ©Priya Kumari Niharika #Nojoto #Poetry #story #आजादी का मोहभंग शीर्षक: आजादी का मोहभंग 15 अगस्त से आप क्या समझते हैं। रेडियो की आकाशवाणी, डीडी नेशनल की परेड, स्कू
kumar suraj dwivedi
AK__Alfaaz..
कल भोर की, उदित होती सिंदूरी किरण के संग, मैने नेह की सुनहरी पोटली मे, सूरज से आती, ममता की धूप को, अपनी झीनी सी, हथेलियों से भर लिया, और.. गले का हार बना लटका लिया, ममत्व की डोरी मे पिरो, कल भोर की, उदित होती सिंदूरी किरण के संग, मैने नेह की सुनहरी पोटली मे, सूरज से आती, ममता की धूप को, अपनी झीनी सी हथेलियों से भर लिया,