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इकराश़
अजब ही ये देखो, सियासत हुई है, खुदा को ही खुद यार आफ़त हुई है। किया इश्क़ था तो बताया नहीं क्यूँ, नई ये उन्हे अब, शिकायत हुई है। खुदी छोड़ कर बन गया है वो शाइर, फकीरों से जब से रफ़ाक़त हुई है। महल्ले में देखो हुई है ये हलचल, वो पल्लू गिराकर जो रुख़्सत हुई है। गुज़रती है तन्हा, ये रातें ये दिन भी, मुझे इस कदर हाँ मुहब्बत हुई है। मिली है खुदा से मिरी रूह जबसे, हरिक साँस अब बेज़रूरत हुई है। कहीं और लगता नहीं है मेरा दिल, बनारस से जब से मुहब्बत हुई है। ~ रफाक़त - दोस्ती पेश है एक ग़ज़ल जिसके हर ख़्याल अलग है, मुख्तलिफ़ है। हर ख़्याल ज़िन्दगी से जुड़े हैं और एक अलग मस'अला दर्शाते हैं। कोशिश करि
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