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Mahfuz nisar
किताबें जो बाक़ी छोड़ जाती हैं, कुछ मुड़े और प्यारे निशान, घर की आलमारी में सँजोये, बचपन की यादों का एक पूरा घर होती है किताबें, अल्फ़ाज़ की जायकेदार खुशबु, खुशी का एक तलघर, नायाब सा एक सफ़र, एहसास का बेबाक बाँकपन, मज़ेदार बातों का सिलसिला, जिसके भीतर महक होती है, उन दिनों कि जब हम अपनी जीवन को पन्नों में ढूंढ रहे होते हैं, वो चाॅक के भूर्भूरे जो मोर के पँखो का खाना होता था, और किताब के बाहरी जिल्द पर हल्दी के वो पीले निशान जो हमने किताबों को मुहब्बत में लगा दिये थे, किताबें जो बाक़ी छोड़ जाते हैं, कुछ मुड़े और प्यारे निशान, कभी ना थमने वाला एक फलसफा, मौज़ू दर मौज़ू सवाल-जवाब का तजकिरा, जिसमें खिड़की-दरवाजे से बड़े क्यूँ, आँगन में रौशनदान क्यूँ, चादर इतनी छोटी क्यूँ , पाँव इतने खुरदुरे क्यूँ, और न जाने क्या-क्या, आपके सोच से कभी मेल खाती, तो कभी कोई इत्तेफाक नहीं रखती, बेसुरे,बदमज़े कुछ पेचिदे मसले भी,तो कभी बेहद आसान और सुलझे हुए बातों की छोटी छोटी लोइ, बेहतरी के कभी पैरोकार होती हैं, तो कभी-कभी सबब होती खात्मे का, सबमें बराबर हिस्सों में बँटकर, फिर एक दिन किताबें मृत हो जाती है, और बनती है ,एक अमर कृति। जो कागज़ो से निकल कर इंसानी ज़ेहन को अपना नया घर बनाती है, और फिर वहीं से अपनी निशानी की छुआ- छुआई खेलती रहती है। किताबें जो बाक़ी छोड़ जाती हैं, कुछ मुड़े और प्यारे निशान। ✍महफूज़ World book day... किताबें जो बाक़ी छोड़ जाती हैं, कुछ मुड़े और प्यारे निशान, घर की आलमारी में सँजोये, बचपन की यादों का एक पूरा घर होती है किताबें, अल्फ़ाज़ की