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MAHENDRA SINGH PRAKHAR
ग़ज़ल:- कैसे गले लगे हो गद्दार की तरह से । दिल से जरा लगो तो दिलदार की तरह से ।।१ हमसे नही छुपाओ बातें कभी जिया की । खुलकर कहो मिरी जाँ हकदार की तरह से ।।२ उड़ती हुई सुनी है हमने यही खबर कल । चर्चा हुआ तुम्हारा कचनार की तरह से ।।३ घर द्वार चाहिए तो आना कभी नगर में । सब कुछ तुम्हें मिलेगा परिवार की तरह से ।।४ जीवन यहाँ हमीं ने अपना सुनो डुबाया । अब दोष दे किसे हम पतवार की तरह से ।।५ पहली दफा मिली थी उनसे सुनों नज़र यह । जिस पर किया भरोसा गंवार की तरह से ।।६ छल कर चले गये हैं रिश्ते सभी प्रखर को । अच्छा प्रयोग है ये व्यापार की तरह से ।।७ ०७/०७/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR ग़ज़ल:- कैसे गले लगे हो गद्दार की तरह से । दिल से जरा लगो तो दिलदार की तरह से ।।१ हमसे नही छुपाओ बातें कभी जिया की । खुलकर कहो मिरी जाँ हकदार
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
गीत :- जीवन की नित बगिया महके , माँग रहा मैं ईश । सफल रहे वैवाहिक जीवन , खुशियां दो जगदीश ।। जीवन की नित बगिया महके ... आँगन में महुआ रस बरसे , पुष्प खिले कचनार । राम-सिया सी जोड़ी लागे , देखे सब संसार ।। दूर पीर परछाई गिरधर , रखना इनके द्वार । अपने दोनो हाथों से वर , सुनों कोसलाधीश ।। नित जीवन की बगिया महके .... दो पक्षी का एक बसेरा , करने को तैयार । सरल बना दो जीवन नैय्या , थामों तुम पतवार ।। आँगन इनके फूल खिलाकर , चहका दो परिवार । आस तुम्हीं से माँ जगदम्बा , हर लो इनकी टीश । नित जीवन की बगिया महके .... मेंहदी यूँ ही खिलती रहे , चमके नित सिंदूर । समय नही वह आने पाये, हो जाये मजबूर ।। पल भर में टूटे ये बंधन , हो जाये फिर दूर । नहीं प्रभु कभी ऐसा करना , कहता है वागीश नित जीवन की बगिया महके .... नित जीवन की बगिया महके , माँग रहा आशीष । सफल रहे वैवाहिक जीवन , खुशियां भर दो ईश ।। १८/०४/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR गीत :- जीवन की नित बगिया महके , माँग रहा मैं ईश । सफल रहे वैवाहिक जीवन , खुशियां दो जगदीश ।। जीवन की नित बगिया महके ... आँगन में महुआ रस ब
Vedantika
जब तुम होते हो मेरे निकट पुष्पित हो जाता है निर्जन वन विस्मृत हो जाता है संसार तुममे ही हो जाता हूँ मैं मग्न जब तुम होती हो, बेफिक्र रहता मैं, आबशार की तरह झरता रहता मैं। सुवासित मंजरी सी छुपाती मुझे, तेरे सर्वांग में अंतर्लीन हो रहता मैं। #अशोककुमा
Kulbhushan Arora
वो बचपन का ज़माना, और बचपने का आवारापन😂😂 उम्र आज लौट गई, बचपन के दिनों में, तब ना TV था ना रेडियो, और न ही थे फ़ोन, अंधेरा छाने को होता, घर से छिपते छिपाते निकलते, जुगनू देख उन्हें
Rahul Singh
म्वारी औ म्वारी भैर जलोट्योंन ऐजा औ । त्वैथैं बुलाणू च बालू बसंत ऐजा ।। देख दुनियाँ का रंग, भैर मनख्यूं का ढंग । मन छलकेंणू उदगार, ज्वान जिक
Anupama Jha
नहीं करती मैं श्रृंगार नहीं भाता मुझे फूल हार नैनों के काजल फैल नीर संग पीर दिल की कह जाते हैं व्यथा मन की मेरे पूरे जग को सुनाते हैं। (पूरी कविता अनुशीर्षक में) #श्रृंगार #पीर #yqdidi #500 नहीं करती मैं श्रृंगार नहीं भाता मुझे फूल हार नैनों के काजल फैल नीर संग पीर दिल की कह जाते हैं
DR. SANJU TRIPATHI
कभी किसी को मोहब्बत में इंतजार कराना भाता है, कभी किसी को दीदार के लिए तड़पाना रास आता है। मोहब्बत करने का सबका अंदाज अपना अपना होता है। कोई खामोशी से बता लेता है कोई जता ही नहीं पाता है। मोहब्बत करके भी, कभी कबूल ना करना, कचनार कली का अंदाज है दिल लूटने का। तुझे अहसास ही नहीं कितने फ़िगार हुए हैं, तुझ तितली को,चस्का लगा यार ब
Swarima Tewari
Accept all the expectations, except from the expectation's expert एक और हिंदी में "कच्ची थी कच्चे कचनार की कलम"😁 Here, कलम= A gardening technique Try to repeat both for 10 times😉 #tonguetwister Kamran Hamid
Preeti Karn
मैं जनती हूं कविताएं किसी अन्य को जनक के अधिकार के आधिपत्य से मुक्त रखती हूं। सहधर्मिता की नियमावली का अनुपालन नहीं होता इस सृजन में। मैंने अपनी अनुभूतियों की हठधर्मिता के निर्वहन मात्र से अपने हृदय गर्भ में बीज आरोपित किए हैं जो बसंत और घहराते काले मेघ सदृश पुष्पधन्वा की धरोहर हैं। कुसुम कचनार पाटली केतकी से झड़ते रस गन्ध से पोषित स्वाति उत्तराआषाढ नक्षत्रों की बूंदों से अलंकृत मलय पवन के रेशे से बुने गए कौशेय वसन सुसज्जित मैं आसन्नप्रसवा जनती हूं कविताएं! प्रीति #जननी#कविता #गर्भ ##प्रसव #yqhindi #yqhindiquotes पुष्पधन्वा : कामदेव पाटली: गुलाब , केतकी: केवड़ा कौशेय : रेशमी आसन्नप्रसवा : जिसे
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
प्रेम नही होता जो जग में , चुभते शूल हजार । वन-वन भटके प्राणी फिर तो , मिले नही कचनार ।। प्रेम प्रकृति में प्रेम शज़र में , प्रेम प्राण आधार । प्रेम नाम है पावन प्रभु का , जिसमें शक्ति अपार । श्याम भजन अब निशिदिन होता , यही प्रेम का सार प्रेम नही होता जो जग में , चुभते शूल हजार ।। प्रेम नही कोई छल पाया , छले प्रेम से आज । प्रेम की दुर्बल न है माया , बने प्रेम से काज । झर-झर निर्झर बहती गंगा, धूले पाप संसार । प्रेम नही होता जो जग में , चुभते शूल हजार ।। प्रेम भक्ति है प्रेम शक्ति है , नही प्रेम आकार । प्रेम मधुर बंधन वो बाँधें , तोड़े क्या संसार । यहाँ प्रेम की मोती बनकर , बनतें है परिवार । प्रेम नही होता जो जग में , चुभते शूल हजार ।। वन-वन भटके फिर तो प्राणी , मिले नही कचनार । प्रेम नही होता जो जग में ,चुभते शूल हजार ।। ०७/११/२०२२ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR प्रेम नही होता जो जग में , चुभते शूल हजार । वन-वन भटके प्राणी फिर तो , मिले नही कचनार ।। प्रेम प्रकृति में प्रेम शज़र में , प्रेम प्राण आधा