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VAniya writer *

#Bhakti #bhakt #Devotional भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ 'सेवा करना' या 'भजना' है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमप #OctoberCreator

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अज्ञात

#रत्नाकर कालोनी.. पेज-9 माँ- बेटा,आप सब लोगों का मेरे बेटे के प्रति दुलार देखकर तो मेरी ममता भी आपके प्रेम के पीछे हो गई..बेटा आज आप सबसे #प्रेरक

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पेज-9
माँ- बेटा,आप सब लोगों का मेरे बेटे के प्रति दुलार  देखकर तो मेरी ममता भी 
आपके प्रेम के पीछे हो गई..बेटा आज आप सबसे बात करते हुये ऐसा लग रहा है
 जैसे आप सब मेरी बेटियां हों.. क्यूँ ना मेरे मानक की जबाबदारी अब मैं आप को
 सौंप दूँ..क्यूंकि मैं तो अब कहीं आ जा नहीं सकती वही इनका भी हाल है, हाँ 
बेटा-बहू तो लगे हुये हैं तलाश में, मगर मानक की ज़िद थी सो यहाँ आ गये हमारे 
नाते रिश्तेदार बहुत दूर हैं यहाँ से.. अब यहाँ आप सब ही हमारे पड़ोसी भी हैं 
रिश्तेदार भी और परिवार भी.. क्यूँ मानक के पापा आपका क्या विचार है..! 
पिता जी- हूम्म..,मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं कुछ कहने को.. मैं तो ये सोचकर 
हैरान हूं कि हमारे मानक ने अपने माँ बाप का सर ही ऊँचा नहीं किया बल्कि 
सबके दिलों में ऐसा स्थान बनाया है जिस पर मुझे गर्व है.. तुम सच कहती हो
 मानक की मम्मी जहाँ ऐसी बहनें हों जो मानक को अपने छोटे भाई अपने बेटे
 की तरह दुलार दें तो इस नाते हमें इनको ही मानक का जीवनसाथी तलाश 
करने का जिम्मा देना चाहिए, अगर मेरी ये बेटियां इस प्रस्ताव को स्वीकार
 कर लें तो इससे बड़ी खुशी की बात और क्या होगी..! बहू बेटे की क्या राय है..
 क्यूँ बेटा.. 
बड़े भैया- पापा, आप लोग जैसा कहें वही तो हमारी खुशी है... छोटू को ऐसी 
अनमोल बहनें मिली हैं वो भी एक सोशल ऐप पर ये कम बड़ी बात तो नहीं है..! 
भगवान भी कहां से कैसे कैसे अपनों को मिलवा देता है..! आप सभी अपने 
मानक के लिये कोई सुयोग्य कन्या तलाश करें मानक की शादी में आगे आप
 पीछे हम होंगे..! यही हमारी इच्छा है. सुनो तुम क्या कहते हो..!
भाभी- जी, मैं क्या कहूँ इस कालोनी में इतने अच्छे और अनमोल रिश्तों को
 पाकर तो लगता है जीवन ही धन्य हो गया हमारा.. !
पुष्पा जी- भाभी आप सबकी ये उदारता और अपनापन देखकर तो हम सभी
 कृतकृत्य हो गये..! अब हमें इजाज़त दीजिये हम फिर आते रहेंगे..! घर में 
सबको भोजन कराना है..! 
मानक- दी खाना तो यहीं बना है, अपने भैया के घर आज खाना खाकर 
जाना प्लीज.. सबको बड़ी खुशी होगी दी.. 
सुधा- बेटू, ये तो हमारा ही घर है ना.. और फिर शादी तय हो जाने दो फिर 
इकट्ठा एक हफ्ते यहीं खाएंगे.. क्यूँ पुष्पा..!
पुष्पा जी के साथ सभी एक साथ कह उठे- बिलकुल.. 
👍👍👍👍👍👍👍👍👍👍👍👍👍👍
अब आगे पेज-10

©R. Kumar #रत्नाकर कालोनी.. 
पेज-9
माँ- बेटा,आप सब लोगों का मेरे बेटे के प्रति दुलार  देखकर तो मेरी ममता भी 
आपके प्रेम के पीछे हो गई..बेटा आज आप सबसे

अज्ञात

#रत्नाकर कालोनी पेज 38 शेष भाग हमारे मानक के विवाह में उमड़ता रचनाकारों का जत्था इस बात का प्रमाण है कि सहज स्वभाव विनम्रता शील और अपनत्व क #प्रेरक

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पेज-38
कहते हैं वैवाहिक कार्यक्रम में बहनें ना हों तो ऐसे कार्यक्रम बेहद सूने लगते हैं क्यूंकि कुछ खास पारम्परिक रस्मों में बहनों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका और आवश्यकता होती है.. तब इस दृष्टि से देखा जाये तो मानक इस कसौटी खरे पर खरा उतरता है.. एक दो चार छः तो छोड़िये बहनों की संख्या सैंकड़ो के पार होते जा रही है वहीं भाई मित्र बड़े बुजुर्ग सभी मानक के लिये अपना सब कुछ छोड़छाड़ के आते ही जा रहे हैं.. आज मानक ने अपने प्रारम्भिक जीवन में ही कितना कुछ कमाया है शायद ये तो उसे भी ज्ञात ना हो.. ये सोशल मीडिया में बने रिश्ते आखिर हकीकत में कितने कारगर सिद्ध हुये हैं.. मगर ये तो विशेषता है हमारे व्यवहार की हमारे प्रेम की हमारे व्यक्तित्व की जो मानक के लिये हर कोई रत्नाकर कालोनी का हिस्सा बनने की ललक रखता है... सच कहूँ साहब तो इस संसार की सबसे बड़ी दौलत है किसी के दिल में अपना स्थान बनाना..और
आगे कैप्शन में.. 🙏

©R. K. Soni #रत्नाकर कालोनी 
पेज 38
शेष भाग 
हमारे मानक के विवाह में उमड़ता रचनाकारों का जत्था इस बात का प्रमाण है कि सहज स्वभाव विनम्रता शील और अपनत्व क

Vikas Sharma Shivaaya'

🙏सुन्दरकांड🙏 दोहा – 16 प्रभु राम की कृपा से सब कुछ संभव सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल। प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल॥16 #समाज

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🙏सुन्दरकांड🙏
दोहा – 16
प्रभु राम की कृपा से सब कुछ संभव
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल॥16॥
हनुमानजी ने कहा कि हे माता! सुनो,
वानरों मे कोई विशाल बुद्धि का बल नहीं है।परंतु प्रभु का प्रताप ऐसा है की उसके बल से छोटा सा सांप गरूड को खा जाता है(अत्यंत निर्बल भी महान् बलवान् को मार सकता है)॥16॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

माता सीता का हनुमानजी को आशीर्वाद
मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना॥1॥
भक्ति, प्रताप, तेज और बल से मिली हुई हनुमानजी की वाणी सुनकर
सीताजी के मन में बड़ा संतोष हुआ फिर सीताजी ने हनुमान को श्री राम का प्रिय जानकर आशीर्वाद दिया कि
हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ॥

हनुमानजी – अजर, अमर और गुणों के भण्डार
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥
हे पुत्र! तुम अजर (जरारहित – बुढ़ापे से रहित),अमर (मरणरहित) और गुणों का भण्डार हो और रामचन्द्रजी तुम पर सदा कृपा करें॥प्रभु रामचन्द्रजी कृपा करेंगे, ऐसे वचन सुनकर हनुमानजी प्रेमानन्द में अत्यंत मग्न हुए॥

हनुमानजी माता सीता को प्रणाम करते है
बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥
और हनुमानजी ने वारंवार सीताजीके चरणों में शीश नवाकर,हाथ जोड़ कर, यह वचन बोले॥हे माता! अब मै कृतार्थ हुआ हूँ,क्योंकि आपका आशीर्वाद सफल ही होता है,यह बात जगत् प्रसिद्ध है॥

अशोकवन के फल और राक्षसों का संहार
हनुमानजी अशोकवन में लगे फलों को देखते है
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी॥4॥
हे माता! सुनो, वृक्षोंके सुन्दर फल लगे देखकर मुझे अत्यंत भूख लग गयी है,
सो मुझे आज्ञा दो॥तब सीताजीने कहा कि हे पुत्र! सुनो,इस वन की बड़े बड़े भारी योद्धा राक्षस रक्षा करते है॥

हनुमानजी सीताजी से आज्ञा मांगते है
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥5॥
तब हनुमानजी ने कहा कि हे माता !
जो आप मनमे सुख माने (प्रसन्न होकर आज्ञा दें),तो मुझको उनका कुछ भय नहीं है॥

आगे शनिवार को ...

विष्णु सहस्त्रनाम (एक हजार नाम) आज 634 से 645 नाम 
634 अर्चितः जो सम्पूर्ण लोकों से अर्चित (पूजित) हैं
635 कुम्भः कुम्भ(घड़े) के समान जिनमे सब वस्तुएं स्थित हैं
636 विशुद्धात्मा तीनों गुणों से अतीत होने के कारण विशुद्ध आत्मा हैं
637 विशोधनः अपने स्मरण मात्र से पापों का नाश करने वाले हैं
638 अनिरुद्धः शत्रुओं द्वारा कभी रोके न जाने वाले
639 अप्रतिरथः जिनका कोई विरुद्ध पक्ष नहीं है
640 प्रद्युम्नः जिनका दयुम्न (धन) श्रेष्ठ है
641 अमितविक्रमःजिनका विक्रम अपरिमित है
642 कालनेमीनिहा कालनेमि नामक असुर का हनन करने वाले
643 वीरः जो शूर हैं
644 शौरी जो शूरकुल में उत्पन्न हुए हैं
645 शूरजनेश्वरः इंद्र आदि शूरवीरों के भी शासक

🙏बोलो मेरे सतगुरु श्री बाबा लाल दयाल जी महाराज की जय🌹

©Vikas Sharma Shivaaya' 🙏सुन्दरकांड🙏
दोहा – 16
प्रभु राम की कृपा से सब कुछ संभव
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल॥16

N S Yadav GoldMine

{Bolo Ji Radhey Radhey} हनुमानजी का सागर पार करना:- बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए महेन्द्र पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए हनुमान जी वहाँ जलाश #diary #पौराणिककथा

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{Bolo Ji Radhey Radhey}
हनुमानजी का सागर पार करना:- बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए महेन्द्र पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए हनुमान जी वहाँ जलाशय में स्थित हुए विशालकाय हाथी के समान जान पड़ते थे। सूर्य, इन्द्र, पवन, ब्रह्मा आदि देवों को प्रणाम कर हनुमान जी ने समुद्र लंघन का दृढ़ निश्चय कर लिया और अपने शरीर को असीमित रूप से बढ़ा लिया। उस समय वे अग्नि के समान जान पड़ते थे। 

 उन्होंने अपने साथी वानरों से कहा, हे मित्रों! जैसे श्री रामचन्द्र जी का छोड़ा हुआ बाण वायुवेग से चलता है वैसे ही तीव्र गति से मैं लंका में जाउँगा और वहाँ पहुँच कर सीता जी की खोज करूँगा। यदि वहाँ भी उनका पता न चला तो रावण को बाँध कर रामचन्द्र जी के चरणों में लाकर पटक दूँगा। आप विश्वास रखें कि मैं सर्वथा कृतकृत्य होकर ही सीता के साथ लौटूँगा अन्यथा रावण सहित लंकापुर को ही उखाड़ कर लाउँगा। 

 इतना कह कर हनुमान आकाश में उछले और अत्यन्त तीव्र गति से लंका की ओर चले। उनके उड़ते ही उनके झटके से साल आदि अनेक वृक्ष पृथ्वी से उखड़ गये और वे भी उनके साथ उड़ने लगे। फिर थोड़ी दूर तक उड़ने के पश्चात् वे वृक्ष एक-एक कर के समुद्र में गिरने लगे। वृक्षों से पृथक हो कर सागर में गिरने वाले नाना प्रकार के पुष्प ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो शरद ऋतु के नक्षत्र जल की लहरों के साथ अठखेलियाँ कर रहे हों। तीव्र गति से उड़ते हुए महाकपि पवनसुत ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे कि वे महासागर एवं अनन्त आकाश का आचमन करते हुये उड़े जा रहे हैं। तेज से जाज्वल्यमान उनके नेत्र हिमालय पर्वत पर लगे हुये दो दावानलों का भ्रम उत्पन्न करते थे। कुछ दर्शकों को ऐसा लग रहा था कि आकाश में तेजस्वी सूर्य और चन्द्र दोनों एक साथ जलनिधि को प्रकाशित कर रहे हों। उनका लाल कटि प्रदेश पर्वत के वक्षस्थल पर किसी गेरू के खान का भ्रम पैदा कर रहा था। हनुमान के बगल से जो तेज आँधी भारी स्वर करती हुई निकली थी वह घनघोर वर्षाकाल की मेघों की गर्जना सी प्रतीत होती थी। आकाश में उड़ते हये उनके विशाल शरीर का प्रतिबम्ब समुद्र पर पड़ता था तो वह उसकी लहरों के साथ मिल कर ऐसा भ्रम उत्पन्न करता था जैसे सागर के वक्ष पर कोई नौका तैरती चली जा रही हो। इस प्रकार हनुमान निरन्तर आकाश मार्ग से लंका की ओर बढ़े जा रहे थे। 

 हनुमान के अद्भुत बल और पराक्रम की परीक्षा करने के लिये देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षियों ने नागमाता सुरसा के पास जा कर कहा, हे नागमाता! तुम जा कर वायुपुत्र हनुमान की यात्रा में विघ्न डाल कर उनकी परीक्षा लो कि वे लंका में जा कर रामचन्द्र का कार्य सफलता पूर्वक कर पायेंगे या नहीं। ऋषियों के मर्म को समझ कर सुरसा विशालकाय राक्षसनी का रूप धारण कर के समुद्र के मध्य में जा कर खड़ी हो गई और उसने अपने रूप को अत्यन्त विकृत बना लिया। हनुमान को अपने सम्मुख पा कर वह बोली, आज मैं तुम्हें अपना आहार बना कर अपनी क्षुधा को शान्त करूँगी। मैं चाहती हूँ, तुम स्वयं मेरे मुख में प्रवेश करो ताकि मुझे तुम्हें खाने के लिये प्रयत्न न करना पड़े। सुरसा के शब्दों को सुन कर हनुमान बोले, तुम्हारी इच्छा पूरी करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु इस समय मैं अयोध्या के राजकुमार रामचन्द्र जी के कार्य से जा रहा हूँ। उनकी पत्नी को रावण चुरा कर लंका ले गया है। मैं उनकी खोज करने के लिये जा रहा हूँ तुम भी राम के राज्य में रहती हो, इसलिये इस कार्य में मेरी सहायता करना तुम्हारा कर्तव्य है। लंका से मैं जब अपना कार्य सिद्ध कर के लौटूँगा, तब अवश्य तुम्हारे मुख में प्रवेश करूँगा। यह मैं तुम्हें वचन देता हूँ। 

 हनुमान की प्रतिज्ञा पर ध्यान न देते हुये सुरसा बोली, जब तक तुम मेरे मुख में प्रवेश न करोगे, मैं तुम्हारे मार्ग से नहीं हटूँगी। यह सुन कर हनुमान बोले, अच्छा तुम अपने मुख को अधिक से अधिक खोल कर मुझे निगल लो। मैं तुम्हारे मुख में प्रवेश करने को तैयार हूँ। यह कह कर महाबली हनुमान ने योगशक्ति से अपने शरीर का आकार बढ़ा कर चालीस कोस का कर लिया। सुरसा भी अपू्र्व शक्तियों से सम्पन्न थी। उसने तत्काल अपना मुख अस्सी कोस तक फैला लियाा हनुमान ने अपना शरीर एक अँगूठे के समान छोटा कर लिया और तत्काल उसके मुख में घुस कर बाहर निकल आये। फिर बोले, अच्छा सुरसा, तुम्हारी इच्छा पूरी हुई अब मैं जाता हूँ। प्रणाम! इतना कह कर हनुमान आकाश में उड़ गये। 

 पवनसुत थोड़ी ही दूर गये थे कि सिंहिका नामक राक्षसनी की उन पर दृष्टि पड़ी। वह हनुमान को खाने के लिये लालयित हो उठी। वह छाया ग्रहण विद्या में पारंगत थी। जिस किसी प्राणी की छाया पकड़ लेती थी, वह उसके बन्धन में बँधा चला आता था। जब उसने हनुमान की छाया को पकड़ लिया तो हनुमान की गति अवरुद्ध हो गई। उन्होंने आश्चर्य से सिंहिका की ओर देखा। वे समझ गये, सुग्रीव ने जिस अद्भुत छायाग्राही प्राणी की बात कही थे, सम्भवतः यह वही है। यह सोच कर उन्होंने योगबल से अपने शरीर का विस्तार मेघ के समान अत्यन्त विशाल कर लिया। सिंहिंका ने भी अपना मुख तत्काल आकाश से पाताल तक फैला लिया और गरजती हई उनकी ओर दौड़ी। यह देख कर हनुमान अत्यन्त लघु रूप धारण करके उसके मुख में जा गिरे और अपने तीक्ष्ण नाखूनों से उसके मर्मस्थलों को फाड़ डाला। 

 इसके पश्चात् बड़ी फुर्ती से बाहर निकल कर आकाश की ओर उड़ चले। राक्षसनी क्षत-विक्षत हो कर समुद्र में गिर पड़ी और मर गई।

©N S Yadav GoldMine {Bolo Ji Radhey Radhey}
हनुमानजी का सागर पार करना:- बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए महेन्द्र पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए हनुमान जी वहाँ जलाश

N S Yadav GoldMine

#Childhood {Bolo Ji Radhey Radhey} उत्तर कांड:- बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए महेन्द्र पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए हनुमान जी वहाँ जलाशय मे #पौराणिककथा

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{Bolo Ji Radhey Radhey}
उत्तर कांड:- बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए महेन्द्र पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए हनुमान जी वहाँ जलाशय में स्थित हुए विशालकाय हाथी के समान जान पड़ते थे। सूर्य, इन्द्र, पवन, ब्रह्मा आदि देवों को प्रणाम कर हनुमान जी ने समुद्र लंघन का दृढ़ निश्चय कर लिया और अपने शरीर को असीमित रूप से बढ़ा लिया। उस समय वे अग्नि के समान जान पड़ते थे। 

 उन्होंने अपने साथी वानरों से कहा, हे मित्रों! जैसे श्री रामचन्द्र जी का छोड़ा हुआ बाण वायुवेग से चलता है वैसे ही तीव्र गति से मैं लंका में जाउँगा और वहाँ पहुँच कर सीता जी की खोज करूँगा। यदि वहाँ भी उनका पता न चला तो रावण को बाँध कर रामचन्द्र जी के चरणों में लाकर पटक दूँगा। आप विश्वास रखें कि मैं सर्वथा कृतकृत्य होकर ही सीता के साथ लौटूँगा अन्यथा रावण सहित लंकापुर को ही उखाड़ कर लाउँगा। 

 इतना कह कर हनुमान आकाश में उछले और अत्यन्त तीव्र गति से लंका की ओर चले। उनके उड़ते ही उनके झटके से साल आदि अनेक वृक्ष पृथ्वी से उखड़ गये और वे भी उनके साथ उड़ने लगे। फिर थोड़ी दूर तक उड़ने के पश्चात् वे वृक्ष एक-एक कर के समुद्र में गिरने लगे। वृक्षों से पृथक हो कर सागर में गिरने वाले नाना प्रकार के पुष्प ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो शरद ऋतु के नक्षत्र जल की लहरों के साथ अठखेलियाँ कर रहे हों। तीव्र गति से उड़ते हुए महाकपि पवनसुत ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे कि वे महासागर एवं अनन्त आकाश का आचमन करते हुये उड़े जा रहे हैं। तेज से जाज्वल्यमान उनके नेत्र हिमालय पर्वत पर लगे हुये दो दावानलों का भ्रम उत्पन्न करते थे। कुछ दर्शकों को ऐसा लग रहा था कि आकाश में तेजस्वी सूर्य और चन्द्र दोनों एक साथ जलनिधि को प्रकाशित कर रहे हों। उनका लाल कटि प्रदेश पर्वत के वक्षस्थल पर किसी गेरू के खान का भ्रम पैदा कर रहा था। हनुमान के बगल से जो तेज आँधी भारी स्वर करती हुई निकली थी वह घनघोर वर्षाकाल की मेघों की गर्जना सी प्रतीत होती थी। आकाश में उड़ते हये उनके विशाल शरीर का प्रतिबम्ब समुद्र पर पड़ता था तो वह उसकी लहरों के साथ मिल कर ऐसा भ्रम उत्पन्न करता था जैसे सागर के वक्ष पर कोई नौका तैरती चली जा रही हो। इस प्रकार हनुमान निरन्तर आकाश मार्ग से लंका की ओर बढ़े जा रहे थे। 

 हनुमान के अद्भुत बल और पराक्रम की परीक्षा करने के लिये देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षियों ने नागमाता सुरसा के पास जा कर कहा, हे नागमाता! तुम जा कर वायुपुत्र हनुमान की यात्रा में विघ्न डाल कर उनकी परीक्षा लो कि वे लंका में जा कर रामचन्द्र का कार्य सफलता पूर्वक कर पायेंगे या नहीं। ऋषियों के मर्म को समझ कर सुरसा विशालकाय राक्षसनी का रूप धारण कर के समुद्र के मध्य में जा कर खड़ी हो गई और उसने अपने रूप को अत्यन्त विकृत बना लिया। हनुमान को अपने सम्मुख पा कर वह बोली, आज मैं तुम्हें अपना आहार बना कर अपनी क्षुधा को शान्त करूँगी। मैं चाहती हूँ, तुम स्वयं मेरे मुख में प्रवेश करो ताकि मुझे तुम्हें खाने के लिये प्रयत्न न करना पड़े। सुरसा के शब्दों को सुन कर हनुमान बोले, तुम्हारी इच्छा पूरी करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु इस समय मैं अयोध्या के राजकुमार रामचन्द्र जी के कार्य से जा रहा हूँ। उनकी पत्नी को रावण चुरा कर लंका ले गया है। मैं उनकी खोज करने के लिये जा रहा हूँ तुम भी राम के राज्य में रहती हो, इसलिये इस कार्य में मेरी सहायता करना तुम्हारा कर्तव्य है। लंका से मैं जब अपना कार्य सिद्ध कर के लौटूँगा, तब अवश्य तुम्हारे मुख में प्रवेश करूँगा। यह मैं तुम्हें वचन देता हूँ। 

 हनुमान की प्रतिज्ञा पर ध्यान न देते हुये सुरसा बोली, जब तक तुम मेरे मुख में प्रवेश न करोगे, मैं तुम्हारे मार्ग से नहीं हटूँगी। यह सुन कर हनुमान बोले, अच्छा तुम अपने मुख को अधिक से अधिक खोल कर मुझे निगल लो। मैं तुम्हारे मुख में प्रवेश करने को तैयार हूँ। यह कह कर महाबली हनुमान ने योगशक्ति से अपने शरीर का आकार बढ़ा कर चालीस कोस का कर लिया। सुरसा भी अपू्र्व शक्तियों से सम्पन्न थी। उसने तत्काल अपना मुख अस्सी कोस तक फैला लियाा हनुमान ने अपना शरीर एक अँगूठे के समान छोटा कर लिया और तत्काल उसके मुख में घुस कर बाहर निकल आये। फिर बोले, अच्छा सुरसा, तुम्हारी इच्छा पूरी हुई अब मैं जाता हूँ। प्रणाम! इतना कह कर हनुमान आकाश में उड़ गये। 

 पवनसुत थोड़ी ही दूर गये थे कि सिंहिका नामक राक्षसनी की उन पर दृष्टि पड़ी। वह हनुमान को खाने के लिये लालयित हो उठी। वह छाया ग्रहण विद्या में पारंगत थी। जिस किसी प्राणी की छाया पकड़ लेती थी, वह उसके बन्धन में बँधा चला आता था। जब उसने हनुमान की छाया को पकड़ लिया तो हनुमान की गति अवरुद्ध हो गई। उन्होंने आश्चर्य से सिंहिका की ओर देखा। वे समझ गये, सुग्रीव ने जिस अद्भुत छायाग्राही प्राणी की बात कही थे, सम्भवतः यह वही है। यह सोच कर उन्होंने योगबल से अपने शरीर का विस्तार मेघ के समान अत्यन्त विशाल कर लिया। सिंहिंका ने भी अपना मुख तत्काल आकाश से पाताल तक फैला लिया और गरजती हई उनकी ओर दौड़ी। यह देख कर हनुमान अत्यन्त लघु रूप धारण करके उसके मुख में जा गिरे और अपने तीक्ष्ण नाखूनों से उसके मर्मस्थलों को फाड़ डाला। 

 इसके पश्चात् बड़ी फुर्ती से बाहर निकल कर आकाश की ओर उड़ चले। राक्षसनी क्षत-विक्षत हो कर समुद्र में गिर पड़ी और मर गई।

©N S Yadav GoldMine #Childhood {Bolo Ji Radhey Radhey}
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Anil Siwach

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sandy

हौदा मागची खोली लग्नाला काहीच दिवस झालेले. तिला सकाळी लवकर जाग येत नसे. अर्ध्यापेक्षा जास्त रात्र धुंदीत सरत होती. एवढे मोठे कुटुंब; कोण का #story #nojotophoto

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 हौदा मागची खोली

लग्नाला काहीच दिवस झालेले. तिला सकाळी लवकर जाग येत नसे. अर्ध्यापेक्षा जास्त रात्र धुंदीत सरत होती. एवढे मोठे कुटुंब; कोण का
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