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Unsplash ये तुम क्या करती हो ? क्यों करती हो ? सबका ही दिल जितना होता है तुम्हें और तुम्हारे दिल का क्या ? जो तुम्हारी जज़्बाती होकर लिए गए फ़ैसलो से है हर बार दुखता ये कौन सी दुनिया है तुम्हारी जो तुमने मन ही मन मे बना लिया ये किसके पीछे भाग रही हो तुम ? और रेस में खुद को ही कहा हो छोड़ आई ? पत्थर की बनती तो जा रही हो पहाड़ों से लड़ते-लड़ते और यह हाथ दिखाना अपना जरा यह कौन सा पत्थर छुपा रखा है तुमने अपने हाथों में जिससे समय-समय पर तुम खुद को ही कुचलती रहती हो ठहरो , मेजेज़ एक सवाल का जवाब दो तुम्हें खुद पर क्या दया नहीं आती कब सीखोगी, खुद से बेहद प्यार करना कब सीखोगी लड़कर जितना अपने आप से कब सीखोगी अपनी कीमती आंसुओं को व्यर्थ ना बहाना सारे फैसला दिल से लेती हो दिमाग क्या भेज खाई है सारी दुनिया के लिए जीती रहो तुम बस तुम्हारी अपनी आत्मा ही तुम्हारे लिए पराई है अरे कुल्हाड़ी पर जाकर पर मार आती हो कहावत भी कुछ और है पैर पर कुल्हाड़ी मारना बुद्धि कहीं रखकर भूल आई हो क्या थोड़ा तो डरो उस परमात्मा से जिन्होंने तुम्हें इतना सजाया हैं संवारा है तुम्हारे भाग्य को लिखा है तुम्हारे कर्मों को लिखा है ऊपर वाले लेखक ने थोड़ा स्वाभिमानी बनो खैर , समझ से तुम्हें आना नहीं है अगर समझ आता तो यह लिखने के बाद शायद तुम्हारा मन शांत होता मगर तुम अशांत लड़की वक्त रहते कहां कुछ सीखने वाली हो! ©katha(कथा ) #library 10 Dec Time-17:44
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श्रीमदभागवत गीता अध्याय 10 श्लोक 40 #geetagyan #teachershailesh #supersamvaad#टीचरशैलेश
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White नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप । एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥ हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिए एकदेश से अर्थात् संक्षेप से कहा है॥ ©TeacherShailesh श्रीमदभागवत गीता अध्याय 10 श्लोक 40
श्रीमदभागवत गीता अध्याय 10 श्लोक 40
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