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Abhishek 'रैबारि' Gairola
कबूतर खड़ी है छज्जे पे कहीं। चुपचाप, शांत, खामोश अभी, न गुटरगूं, न मटर- गटर, सीधी... देख रही है दूर कहीं, समझ नहीं आता है पर कहाँ कहीं, क्यूँ की सामने हैं घनेरे पेड़ कई। क़लम निकाल के लिख तो लूँ ज़रा इसकी यह दुविधा ही सही, कम्बख़्त कॉपी ले कर झट से आया जब, फट से उड़ चली गगन में, फड़फड़ाती, सरसराती, ससुरी, अब ख़ाली लव्ज़ हैं जो एक याद पे निर्भर हैं, नतीजों से परे ये पल भर की कविता यही। ©Abhishek 'रैबारि' Gairola पल भर की कविता कबूतर खड़ी है छज्जे पे कहीं। चुपचाप, शांत, खामोश अभी, न गुटरगूं, न मटर- गटर, सीधी... देख रही है दूर कहीं, समझ नहीं आता है