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AK__Alfaaz..
भोर भये, उसके नैनों की सीपियों से, झरे मोती, बिछौने पर पड़ी, सिलवटों की लहरों मे खो गयें उम्मीद के, बंद झरोखों की, दराजों से, झाँकती पूनम की रात, छूकर उसके, लाल महावर लगे पाँव, उसकी फटी ऐंड़ियों की, दरारों मे, तलाशती है, उसके खोये सपनों की राह, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #थोड़ी_सी_धूप भोर भये, उसके नैनों की सीपियों से, झरे मोती, बिछौने पर पड़ी, सिलवटों की लहरों मे खो गयें
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शुक्ल पक्ष की, सुहागन पूर्णिमा, सी वो, बिखरती रही, भूमि के आलिंगन को, और..चाहती वो, सिमट जाना, भोर की बाँहों मे, उसने, कभी नही चाहा, कुछ प्रश्नों को, उत्तरित करना, वो सदा, उन्हें माथे की बिंदिया बना, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #अश्रुओं_का_उपवास शुक्ल पक्ष की, सुहागन पूर्णिमा, सी वो, बिखरती रही,
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रात, बिछौने पर, बिछायी गयीं, उसकी चुप्पियां, सिलवटों की लहरों मे, डूबकर कराह रही थीं, और..नैनों की कोरों से, बहे उसके दो मोती, तकिए के गिलाफ पर पड़े, अपने घर का, पता पूछ रहे थें उससे, उसकी आँखों पर सजी, काजल की काली सरिता, पलकों के बंध तोड़, उम्मीद की बहती, बाढ़ मे बहकर, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #सावन_की_साँझ रात, बिछौने पर, बिछायी गयीं, उसकी चुप्पियां,
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उसकी, उम्र के अमावस की रात, तीसरे पहर, इक याद लुढ़क आती है, उसके मन के गलियारे में, जहां, इक आशाओं के, रोशनदान से, हर सुबह झांकती है, उसके प्रेम की धूप, वो जानती है, गेहूं से..घुन की तरह, प्रीत के सूपे से फटककर, निकाली नही जा सकती हैं, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #गुलमोहर उसकी, उम्र के अमावस की रात, तीसरे पहर, इक याद लुढ़क आती है,
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उसके प्रेम के, विरह की सर्दियों में, हृदय की भूमि पर, जमीं उम्मीद की बर्फ, उसकी, सुलगती देह के अलाव की, गर्माहट ढूंढ रहीं थीं, हथेलियां उसकी, कुछ शब्द, आहटों की चादर ओढ़, उस तक कभी नही आये, वो..मौन मे, रूपांतरित हो, दिल के अहाते मे लगी, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #कादंबरी उसके प्रेम के, विरह की सर्दियों में, हृदय की भूमि पर, जमीं उम्मीद की बर्फ,
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था उसका घर, उसके प्रेम के, हृदय की उत्तर दिशा मे, उसकी हथेलियों की रेखाओं से, चार कोस दूर, पलकों की मेड़ से सटे, जहाँ उसके एक किनारे, अश्रु सरोवर मे, खिलते हैं.. उसके, वियोग के नीलकमल, पूष की रात मे, जिन पर गिरी ओस की बूँदें, टिमटिमाती हैं, किसी.. टूटे तारे की भाँति, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #प्रेम_ग्रंथ था उसका घर, उसके प्रेम के, हृदय की उत्तर दिशा मे, उसकी हथेलियों की रेखाओं से,
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काशी की गलियों से हो, मणिकर्णिका पहुंची, उसकी निःष्प्राण देह, जलती चिता की, चिताग्नियों के मध्य, उसे स्मरण कराती है, सप्तपदी की, पावन वेदिका, और..उसके, चारों ओर घूमकर, लिए सातों वचन, व..समर्पण की गांठों मे, बँधा उसका जीवन, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #मन_का_मसान काशी की गलियों से हो, मणिकर्णिका पहुंची, उसकी निःष्प्राण देह, जलती चिता की,
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आत्मअनुभूति, लेकर आती है, मन के प्रश्न पत्र मे, कई अनसुलझे सवाल, अफसोस, करूणा, व, अश्रुओं की अनगिनत, बीजगणितीय उलझने, मौन अंतस निःशब्द हो, उजला सा दर्पण, बन जाता है उसका, जो प्रतिबिंबित करता है, उसकी काया पर, रूढियों की नुकीली छैनियों से बने, शिलालेखों को, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #विधवा_का_वध आत्मअनुभूति, लेकर आती है, मन के प्रश्न पत्र मे, कई अनसुलझे सवाल,
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कल रात में, उससे पहले की अमावस को, दो रातों पहले, आये चंदा की चाँदनी में, और..हफ्ते भर पूर्व, आये रात के तीसरे पहर में, सपनों का अर्थ ढूँढ़ती वो, व..मस्तिष्क के प्रश्नपत्र में, हर बार आते, प्रश्न बनकर, उसके हृदय की उत्तर पुस्तिका मे, उत्तर ढूँढ़ती श्वांसें उसकी, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #दुर्गा_का_देश कल रात में, उससे पहले की अमावस को, दो रातों पहले, आये चंदा की चाँदनी में,
AK__Alfaaz..
जेठ की, तपती भूमि पर, आषाढ़ मे गिरी, उसके नैनों से, विश्वास की बूंद, भाप बनकर उड़ गई, पीड़ाओं की चलती लू मे, उन बिखरे दिनों की, इक टूटी साँझ को, उसकी हथेलियों पर, इक तिरछी लकीर उभर आयी, आशाओं की, जिसे..काटकर आगे बढ़ी थी, उसके हिस्से की, समर्पण की लकीर, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #अहिल्या जेठ की, तपती भूमि पर, आषाढ़ मे गिरी, उसके नैनों से,