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वेदों की दिशा

.।। ओ३म् ।।

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्‌ तन्मयो भवेत्‌ ॥

ॐ (प्रणव) है धनुष तथा आत्मा है बाण, और 'वह', अर्थात् 'ब्रह्म' को लक्ष्य के रूप में कहा गया है। 'उसका' प्रमाद रहित होकर वेधन करना चाहिये; जिस प्रकार शर अर्थात् बाण अपने लक्ष्य में विलुप्त हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य को 'उस' में (ब्रह्म में) तन्मय हो जाना चाहिये।

OM is the bow and the soul is the arrow, and That, even the Brahman, is spoken of as the target. That must be pierced with an unfaltering aim; one must be absorbed into That as an arrow is lost in its target.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.४ ) #मुण्डकोपनिषद् #mundakopanishad #उपनिषद #उपनिषद #ब्रह्मा #वह #him

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद्‌ ब्रह्म पश्चाद्‌ ब्रह्म दक्शिणतश्चोत्तरेण।
अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्‌ ॥

यह सब कुछ अमृतस्वरूप 'ब्रह्म' ही है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं; 'ब्रह्म' ही हमारे सम्मुख है, 'ब्रह्म' ही पश्चात् है, हमारे दक्षिण में भी हमारे उत्तर में भी४, हमारे नीचे तथा हमारे ऊपर भी, यह सर्वत्र व्याप्त है। यह सम्पूर्ण अद्भुत विश्व केवल 'ब्रह्म' ही है।

All this is Brahman immortal, naught else; Brahman is in front of us, Brahman behind us, and to the south of us and to the north of us4 and below us and above us; it stretches everywhere. All this is Brahman alone, all this magnificent universe.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.१२ ) #मुण्डकोपनिषद् #upnishad #brahma #सर्वव्यापी #Iternal

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥

वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकतीं, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी? जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।

There the sun shines not and the moon has no splendour and the stars are blind; there these lightnings flash not, how then shall burn this earthly fire? All that shines is but the shadow of his shining; all this universe is effulgent with his light.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.११ ) #मुण्डकोपनिषद् #upnishad #he #sun #moon #आभा #प्रकाश

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

मनोमयः प्राणशरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय।
तद्‌ विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद्‌ विभाति ॥

वह मनोमय है, प्राण एवं शरीर का नेता है, जिसने जड़तत्त्व (अन्न) में हृदय को स्थापित कर दिया है, जो स्वयं जड़तत्त्व (अन्न) में सुप्रतिष्ठित है। उसे जानने से ज्ञानीजन (धीर पुरुष) अपने चारों ओर 'उस' (आत्मतत्त्व) का दर्शन करते हैं जिसकी ज्योति सर्वत्र भासित होती है, जो 'आनन्दरूप' एवं अमृत-स्वरूप है।

A mental being, leader of the life and the body, has set a heart in matter, in matter he has taken his firm foundation. By its knowing the wise see everywhere around them That which shines in its effulgence, a shape of Bliss and immortal.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.८ ) #मुण्डकोपनिषद् #upnishad #मन #जीवात्मा

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्यः स एषोऽन्तश्चरते बहुधा जायमानः।
ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति वः पाराय तमसः परस्तात्‌ ॥

रथ के चक्र की नाभि में जुडे़ हुए अरों की भाँति जहाँ नाड़ियाँ एकत्रित हो जाती हैं, 'वह' ही है जो अन्तर में विचरण करता है,- 'वही' बहुविध रूप में जन्म लेता है। 'आत्मा' का 'ओम्', के रूप में ध्यान करो, तथा अन्धतमस् से परे उस पार जाने का तुम्हारा मार्ग मंगलमय (स्वस्ति) हो।

Where the nerves are brought close together like the spokes in the nave of a chariot-wheel, this is He that moves within, -there is He manifoldly born. Meditate on the Self as OM and happy be your passage to the other shore beyond the darkness.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.६ ) #मुण्डकोपनिषद् #upnishad #चक्र #chakra #आत्मा #soul #ईश्वर #परमात्म

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

यस्मिन्‌ द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मनः सह प्राणैश्च सर्वैः।
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यैष सेतुः ॥

'वह', जिसमें द्युलोक, पृथ्वी एवं अन्तरिक्ष, मन तथा प्राण की समस्त गलियां अन्तर्भूत हैं, ओत-प्रोत हैं, 'उसको' तुम एकमेव 'आत्मरूप' जानो; इससे भिन्न अन्य वचनों का सर्वथा त्याग कर दो, यही है अमृत का सेतु।

He in whom are inwoven heaven and earth and the midregion, and mind with all the life currents, Him know to be the one Self; other words put away from you: this is the bridge to immortality.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.५ ) #मुण्डकोपनिषद् #upnishad #gyan #guru

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्य७मानाः।
जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥

'अविद्या' के अन्दर बन्द रहने वाले ये लोग जो स्वयं को विद्वान् मानकर सोचते हैː ''हम भी विद्वान् तथा पण्डित हैं'', वस्तुतः मूढ हैं, तथा वे उसी प्रकार चोटें तथा ठोकरें खाते हुए भटकते हैं जैसे अन्धे के द्वारा ले जाया गया अन्धा।

They who dwell shut within the Ignorance and they hold themselves for learned men thinking “We, even we are the wise and the sages”-fools are they and they wander around beaten and stumbling like blind men led by the blind.

( मुण्डकोपनिषद् १.२.८ ) #मुण्डकोपनिषद् #मूर्ख #पाखंडी #छद्म #पंडित #पंडे #अवैदिक #दुष्ट

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

एह्येहीति तमाहुतयः सुवर्चसः सूर्यस्य रश्मिभिर्यजमानं वहन्ति।
प्रियां वाचमभिवदन्त्योऽर्चयन्त्य एष वः पुण्यः सुकृतो ब्रह्मलोकः ॥

ये दीप्तिमयी हुताग्नियाँ उस यजमान को ''आओ, हमारे साथ आओ'' पुकार कर कहती हैं तथा प्रियवाणी के द्वारा उसका अभिवादन करते हुए, उसकी पूजा अर्चना करते हुए, सूर्य की रश्मियों के माध्यम से उसका वहन करती हैं; "यही है तुम्हारा पुण्य ब्रह्मलोक, तुम्हारा सुकृत-लभ्य स्वर्ग।''

“Come with us”, “Come with us”, they cry to him, these luminous fires of sacrifice, and they bear him by the rays of the Sun speaking to him pleasant words of sweetness, doing him homage, “This is your holy world of Brahman and the heaven of your righteousness.”

( मुण्डकोपनिषद् १.२.६ ) #मुण्डकोपनिषद् #upnishad #yagya #Surya #Rashmi

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः संभवन्ति।
यथा सतः पुरुषात्‌ केशलोमानि तथाऽक्षरात्‌ संभवतीह विश्वम्‌ ॥

जिस प्रकार मकड़ी अपने (जाले का) सर्जन करती है तथा उसे अपने में समेट लेती है, जिस प्रकार पृथ्वी पर औषधियाँ उत्पन्न होती हैं, जिस प्रकार जीवित मनुष्य के शरीर के रोम तथा सिर के बाल बढ़ते हैं, उसी प्रकार 'अक्षर तत्त्व' से यही सब कुछ उत्पन्न होता है।

As the spider puts out and gathers in, as herbs spring up upon the earth, as hair of head and body grow from a living man, so here all is born from the Immutable

 ( मुण्डकोपनिषद् १.१.७ ) #मुण्डकोपनिषद् #upnishad #web #spider

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

यत् तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुःश्रोत्रं तदपाणिपादम्‌।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं यद् भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः ॥

वह' जो अदृश्य है, अग्राह्य है, सम्बन्धहीन (अगोत्र) है। अवर्ण है, चक्षु तथा श्रोत्र रहित है, जो अपाणिपाद (हाथ-पाँव रहित) है, नित्य है, विभु है, सर्वगत है, सब में ओतप्रोत है, अतिसूक्ष्म है, अव्यय है, जो समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का उद्गम-स्थल (योनि) है, ज्ञानीजन (धीरजन) सर्वत्र उसका दर्शन करते हैं।

That the invisible, that the unseizable, without connections, without hue, without eye or ear, that which is without hands or feet, eternal, pervading, which is in all things and impalpable, that which is Imperishable, that which is the womb of creatures sages behold everywhere.

( मुण्डकोपनिषद् १.१.६ ) #मुण्डकोपनिषद् #upnishad #अनंत #अखंड #सूक्ष्म #अविनाशी #ईश्वर #अमूर्त
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