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Amitesh S. Anand

निरंतर जीवन जगत में
जीवन बहता जा रहा 
बन नदी  । 

बिना कोई उद्गम, 
बिन पड़ाव
कहाँ से उद्गम, कहाँ निर्गम  ? 

निक्षेप ही निक्षेप, 
दुर्गम ही दुर्गम
अंतहीन सिलसिला । 

बिना कोई बांध,बिना समाधान
ना धार, ना आधार
कहाँ जुड़े, कहाँ बिछुड़ें  ? 

निरख परख क्या, क्यों, कब तक
है कल्पना शब्दों की तो
क्यों नहीं बनती हकीकत  ? 

अनंत से बहती आ रही
थकी जीवन नदी की व्यथा का
महाकाल है कहाँ  ? 

सागर में या मरुस्थलों में 
सिमटेगा जहां  ।

Anil Siwach

|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 12 ।।श्री हरिः।। 11 - महत्संग की साधना 'मेरी साधना विफल हुई।' गुर्जर राजकुमार ने एक लम्बी श्वास ली। वे अपने विश्राम-कक्ष में एक चन्दन की चौकी पर धवल डाले विराजमान थे। ग्रन्थ-पाठ समाप्त हो गया था और जप भी पूर्ण कर लिया था उन्होंने। ध्यान की चेष्टा व्यर्थ रही और वे पूजा के स्थान से उठ आये। राजकुमार ने स्वर्णाभरण तो बहुत दिन हुए छोड़ रखे हैं। शयनगृह से हस्ति-दन्त के पलंग एवं कोमल आस्तरण भी दूर हो चुके हैं। उनकी भ्रमरकृष्ण घुंघराली अलकें सुगन्धित तेल का सिञ्च

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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 12

।।श्री हरिः।।
11 - महत्संग की साधना

'मेरी साधना विफल हुई।' गुर्जर राजकुमार ने एक लम्बी श्वास ली। वे अपने विश्राम-कक्ष में एक चन्दन की चौकी पर धवल डाले विराजमान थे। ग्रन्थ-पाठ समाप्त हो गया था और जप भी पूर्ण कर लिया था उन्होंने। ध्यान की चेष्टा व्यर्थ रही और वे पूजा के स्थान से उठ आये।

राजकुमार ने स्वर्णाभरण तो बहुत दिन हुए छोड़ रखे हैं। शयनगृह से हस्ति-दन्त के पलंग एवं कोमल आस्तरण भी दूर हो चुके हैं। उनकी भ्रमरकृष्ण घुंघराली अलकें सुगन्धित तेल का सिञ्च

Lalit Machhi

*दर्द को अपने मूल उद्गम तक पहुंचने की प्रबल इच्छा के रूप में स्वीकार करें। -चारी जी महाराज "वास्तव में दर्द हमारे असली मकान की खिड़की पर रखे हुए लैंप के समान है ,जिसके पीछे हमें चलना है । जहाँ आनंद हमें भटकाकर, सही रास्ते से हटाकर अलग कर देता है, वहीँ दर्द का यह लैंप प्रकाशित होकर हमें वापस अपने घर की ओर ले जाता है । सही रास्ते का निर्देशन भी यह दर्द ही करता है । लेकिन ये तभी हो सकता है जब हम इस दर्द को अपने मूल उद्गम तक पहुंचने की प्रबल इच्छा के रूप में स्वीकार करें ।यदि हम अपने प्रियतम में प #विचार

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Woh kya baat thi ..? *दर्द को अपने मूल उद्गम तक पहुंचने की प्रबल इच्छा के रूप में स्वीकार करें।
-चारी जी महाराज

"वास्तव में दर्द हमारे असली मकान की खिड़की पर रखे हुए  लैंप के समान है ,जिसके पीछे हमें चलना है । जहाँ आनंद हमें भटकाकर, सही रास्ते से हटाकर अलग कर देता है,  वहीँ दर्द का यह लैंप प्रकाशित होकर हमें वापस अपने घर की ओर ले जाता है । सही रास्ते का निर्देशन भी यह दर्द ही करता है । लेकिन ये तभी हो सकता है जब हम इस दर्द को अपने मूल उद्गम तक पहुंचने की प्रबल इच्छा के रूप में स्वीकार करें ।यदि हम अपने प्रियतम में प

Anil Siwach

|| श्री हरि: || 9 - श्रद्धा की जय आज की बात नहीं है; किंतु है इसी युगकी क्या हो गया कि इस बात को कुछ शताब्दियाँ बीत गयी। कुलान्तक्षेत्र (कुलू प्रदेश) वही है, व्यास ओर पार्वती की कल-कल-निदनादिनी धाराएँ वही हैं और मणिकर्ण का अर्धनारीश्वर क्षेत्र तो कहीं आता-जाता नहीं है। कुलू के नरेश का शरीर युवावस्था में ही गलित कुष्ठ से विकृत हो गया था। पर्वतीय एवं दूरस्थ प्रदेशों के चिकित्सक व्याधि से पराजित होकर विफल-मनोरथ लौट चुके थे। क्वाथा-स्नान , चूर्ण-भस्म, रस-रसायन कुछ भी तो कर सका होता। नरेश न उच्छृं #Books

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|| श्री हरि: ||
9 - श्रद्धा की जय

आज की बात नहीं है; किंतु है इसी युगकी क्या हो गया कि इस बात को कुछ शताब्दियाँ बीत गयी। कुलान्तक्षेत्र (कुलू प्रदेश) वही है, व्यास ओर पार्वती की कल-कल-निदनादिनी धाराएँ वही हैं और मणिकर्ण का अर्धनारीश्वर क्षेत्र तो कहीं आता-जाता नहीं है।

कुलू के नरेश का शरीर युवावस्था में ही गलित कुष्ठ से विकृत हो गया था। पर्वतीय एवं दूरस्थ प्रदेशों के चिकित्सक व्याधि से पराजित होकर विफल-मनोरथ लौट चुके थे। क्वाथा-स्नान , चूर्ण-भस्म, रस-रसायन कुछ भी तो कर सका होता।

नरेश न उच्छृं


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