शब्दों की बिसात क्या बिछाऊँ, ये धड़कनों की शतरंज में उनकी बारी है। किसी एक प्यादे को न्योछावर कर जाऊँ, ये तख़्तो ताज क्या पूरी बाज़ी तुम्हारी है। मैं क्यों, कैसे, कब और कहाँ से यहाँ पहुँचा ये मुझे भी समझने का वक़्त नहीं मिला। तुम्हारे साथ की इच्छा थी, इरादा भी था, पर उम्मीद ना हुई, ठिकाना ना बना, बस मिले और चल दिए क्योंकि अलग जाना था। अभी सोचता हूँ के तुम वो क्यों नहीं थे। फिर सोचता हूँ तुम क्या हो और दोनों तरीक़ों से मेरे नहीं हो। तो इस इच्छा को दबाना भी कठिन क्यों था? ना तुम समझे ना मुझ से कहा गया। हर बात का एक नया बहाना बनता गया। मैं आज भी चाहता हूँ के तुम ख़ुश रहो या दुखी मुझे फ़र्क़ ना पड़े क्योंकि इस सीधे इंसान की टेढ़ी मेढ़ी ज़िंद