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आहत।। आहत, हां, आहत हूँ मैं, आहत हूँ अपनेआप से। अ

आहत।।

आहत,
हां, आहत हूँ मैं,
आहत हूँ अपनेआप से।
अंदर उमड़ती,
दुर्भावनाएं अनायास से।
आहत हूँ,
अपनी अकर्मण्यता,
और अपने ही एहसास से।
माता पिता की भावनाएं,
उनके जीवंत आस से।
कर्म की पूजा, कब की मैंने,
सिवा इसके आदत सब की मैंने।
आओ, तुम भी देखो,
आओ देखो मेरे हालात को।
आज लड़ता हूँ खुद से,
आओ देखो उलझे मेरे ज़ज़्बात को।
किस ख़ातिर जन्म हुआ मेरा,
किस ख़ातिर।
नाज़िर बना हूँ, बही-खाता लिए,
कैसा नाज़िर।
आहत हूँ,
शकुनि की तरह अपनी सहोदरा के लिए।
किस कुल का नाश करूँ,
समजा की हत्या कैसे इस धरा के लिए।
कुल-कलंकित, 
आत्मा विक्षिप्त,
सार-रहित प्राण-वायु,
मुर्दा-गंध लिप्त।
हृदय गति, अतिमन्द,
नाड़ी स्थूल।
दीर्घता का सूक्ष्मीकरण,
उदर पड़ते शूल।
आत्मा पड़ी घृणित,
क्षत-विक्षत।
शापग्रस्त, शापग्रस्त,
निज शापग्रस्त।
चढ़ा तूणीर, प्रत्यंचा तान,
निज-व्याध है ललकारता।
प्रण-जड़ित मृत्यु आस में,
भीष्म हृदय है सालता।
आक्षेप दोष-मुक्त है,
पाप-निवारण यंत्रित हुआ।
श्रमिक कार्मिक नहीं,
जीव-कर्म भी मंत्रित हुआ।
चित्कारऔषधि की खोज में,
मन यहां वानर हुआ।
संजीवनी की तलाश में,
मन-सिंह भी कातर हुआ।
ये जन्म कब स्व-अवतार था,
टपकता स्वार्थ-लार था।
दूषित हृदय कलुषित पड़ा,
रक्षक भी है मूर्छित खड़ा।
अहो सर्प-दंश,
आ नवजीवन संचार कर।
युधिस्ठिर के सत्य पर,
आ द्रोण का संहार कर।
आहत पड़ा था धर्म तब,
आहत हुआ मज़हब यहां।
आहत हूँ शब्द उकेरता,
आहत हुआ मरघट यहां।
लिपि जो स्वीकार्य हो,
अतिसंयोक्तियों से हो परे।
हो रहे आहत जो तुम,
फिर क्यूँ, हाथों पे हाथ हो धरे।

©रजनीश "स्वछंद" आहत।।

आहत,
हां, आहत हूँ मैं,
आहत हूँ अपनेआप से।
अंदर उमड़ती,
दुर्भावनाएं अनायास से।
आहत हूँ,
आहत।।

आहत,
हां, आहत हूँ मैं,
आहत हूँ अपनेआप से।
अंदर उमड़ती,
दुर्भावनाएं अनायास से।
आहत हूँ,
अपनी अकर्मण्यता,
और अपने ही एहसास से।
माता पिता की भावनाएं,
उनके जीवंत आस से।
कर्म की पूजा, कब की मैंने,
सिवा इसके आदत सब की मैंने।
आओ, तुम भी देखो,
आओ देखो मेरे हालात को।
आज लड़ता हूँ खुद से,
आओ देखो उलझे मेरे ज़ज़्बात को।
किस ख़ातिर जन्म हुआ मेरा,
किस ख़ातिर।
नाज़िर बना हूँ, बही-खाता लिए,
कैसा नाज़िर।
आहत हूँ,
शकुनि की तरह अपनी सहोदरा के लिए।
किस कुल का नाश करूँ,
समजा की हत्या कैसे इस धरा के लिए।
कुल-कलंकित, 
आत्मा विक्षिप्त,
सार-रहित प्राण-वायु,
मुर्दा-गंध लिप्त।
हृदय गति, अतिमन्द,
नाड़ी स्थूल।
दीर्घता का सूक्ष्मीकरण,
उदर पड़ते शूल।
आत्मा पड़ी घृणित,
क्षत-विक्षत।
शापग्रस्त, शापग्रस्त,
निज शापग्रस्त।
चढ़ा तूणीर, प्रत्यंचा तान,
निज-व्याध है ललकारता।
प्रण-जड़ित मृत्यु आस में,
भीष्म हृदय है सालता।
आक्षेप दोष-मुक्त है,
पाप-निवारण यंत्रित हुआ।
श्रमिक कार्मिक नहीं,
जीव-कर्म भी मंत्रित हुआ।
चित्कारऔषधि की खोज में,
मन यहां वानर हुआ।
संजीवनी की तलाश में,
मन-सिंह भी कातर हुआ।
ये जन्म कब स्व-अवतार था,
टपकता स्वार्थ-लार था।
दूषित हृदय कलुषित पड़ा,
रक्षक भी है मूर्छित खड़ा।
अहो सर्प-दंश,
आ नवजीवन संचार कर।
युधिस्ठिर के सत्य पर,
आ द्रोण का संहार कर।
आहत पड़ा था धर्म तब,
आहत हुआ मज़हब यहां।
आहत हूँ शब्द उकेरता,
आहत हुआ मरघट यहां।
लिपि जो स्वीकार्य हो,
अतिसंयोक्तियों से हो परे।
हो रहे आहत जो तुम,
फिर क्यूँ, हाथों पे हाथ हो धरे।

©रजनीश "स्वछंद" आहत।।

आहत,
हां, आहत हूँ मैं,
आहत हूँ अपनेआप से।
अंदर उमड़ती,
दुर्भावनाएं अनायास से।
आहत हूँ,