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#नाकाम_ए_मुहब्ब़त.. यूँ तो मुकम्मल है जिंदगी जीने

#नाकाम_ए_मुहब्ब़त..

यूँ तो मुकम्मल है जिंदगी जीने के लिए..
  बस एक मोहब्ब़त के लिए अबतक नाकाम रही..।

किश्त-दर-किश्त ही सौदा हुआ था जज्बातों का शायद...
  उसी बाकी एक कर्ज पर जिंदगी अबतक
       होती नीलाम रही...।

खरीद लाए हैं शामें यादों की उनके मुकर्रर ठिकानों से..
  क्योंकि अब बिक चुके वो चाँद की छत पर 
      चर्चा ये कल से सरेआम रही..।

हर्फ़-हर्फ़ अधूरा है किस्से के उस इकलौते किरदार का मेरे
     रूब़रू रहकर उसके ख़यालों के भी अरसे से 
            मैं उससे गुमनाम रही....।

वो निकल गया है दूर तलाश में..नई ख्वाहिशों के अपनी..
       जिसके टूटते ख्वाब़ के जर्रे - जर्रे का 
              मैं इल्ज़ाम रही....।

यकीनन लौट आता वो ग़र मैं अजनबी हो जाती..
        ....शख़्सियत से उसकी...
   मगर करूं मैं क्या उसी की राहे-गुजर में आकर 
          ही तो अब तक मैं बदनाम रही...।

दिल तोड़ना आदत ना थी उसकी..महज़ फित़रत थी
         ....वफा-आजमाइश की..
    इसी रंजिश की तलब़ में शायद उसका मैं 
                  आखिरी इंतकाम रही...।
         
 ": अंकुर:" #नाकाम_ए_मुहब्ब़त..

यूँ तो मुकम्मल है जिंदगी जीने के लिए..
  बस एक मोहब्ब़त के लिए अबतक नाकाम रही..।

किश्त-दर-किश्त ही सौदा हुआ था जज्बातों का शायद...
  उसी बाकी एक कर्ज पर जिंदगी अबतक
       होती नीलाम रही...।
#नाकाम_ए_मुहब्ब़त..

यूँ तो मुकम्मल है जिंदगी जीने के लिए..
  बस एक मोहब्ब़त के लिए अबतक नाकाम रही..।

किश्त-दर-किश्त ही सौदा हुआ था जज्बातों का शायद...
  उसी बाकी एक कर्ज पर जिंदगी अबतक
       होती नीलाम रही...।

खरीद लाए हैं शामें यादों की उनके मुकर्रर ठिकानों से..
  क्योंकि अब बिक चुके वो चाँद की छत पर 
      चर्चा ये कल से सरेआम रही..।

हर्फ़-हर्फ़ अधूरा है किस्से के उस इकलौते किरदार का मेरे
     रूब़रू रहकर उसके ख़यालों के भी अरसे से 
            मैं उससे गुमनाम रही....।

वो निकल गया है दूर तलाश में..नई ख्वाहिशों के अपनी..
       जिसके टूटते ख्वाब़ के जर्रे - जर्रे का 
              मैं इल्ज़ाम रही....।

यकीनन लौट आता वो ग़र मैं अजनबी हो जाती..
        ....शख़्सियत से उसकी...
   मगर करूं मैं क्या उसी की राहे-गुजर में आकर 
          ही तो अब तक मैं बदनाम रही...।

दिल तोड़ना आदत ना थी उसकी..महज़ फित़रत थी
         ....वफा-आजमाइश की..
    इसी रंजिश की तलब़ में शायद उसका मैं 
                  आखिरी इंतकाम रही...।
         
 ": अंकुर:" #नाकाम_ए_मुहब्ब़त..

यूँ तो मुकम्मल है जिंदगी जीने के लिए..
  बस एक मोहब्ब़त के लिए अबतक नाकाम रही..।

किश्त-दर-किश्त ही सौदा हुआ था जज्बातों का शायद...
  उसी बाकी एक कर्ज पर जिंदगी अबतक
       होती नीलाम रही...।

#नाकाम_ए_मुहब्ब़त.. यूँ तो मुकम्मल है जिंदगी जीने के लिए.. बस एक मोहब्ब़त के लिए अबतक नाकाम रही..। किश्त-दर-किश्त ही सौदा हुआ था जज्बातों का शायद... उसी बाकी एक कर्ज पर जिंदगी अबतक होती नीलाम रही...। #poem