मौसम -ए- बहार यूं हर शाख पर नहीं आता। अंदर से टूटे हो तो चेहरे पे नखर नहीं आता। उड़ा दिया मैंने उसे ख़त-ए-अलविदा के साथ। क़ैद से छूटा परिंदा, फिर लौट कर नहीं आता। किसी को दे दूं दिल, किसी को जान बुलाऊं। ये फ़रेब औ ये हुनर मुझे तो समझ नहीं आता। मेरे गांव की उदासियां मुझसे सवाल करती है। शहर को गया कोई, लौट कर क्यूं नहीं आता। गांव की नहर, शाम का वो पहर तुझे बुलाते है। याद करके उन्हें क्या तेरी आंख भर नहीं आता। मां आंखे बिछाए बैठी रहती है बस राह तकती है। मां तड़पती रहती है जब तक बेटा घर नहीं आता। मृत्युंजय विश्वकर्मा #गाज़ल #शेर