कहीं आजादी का जश्न था और कहीं गुलामी का मातम | किसी को घर मिलने की खुशी थी और किसी को घर छिनने का गम| स्वतंत्र ही रहे हमारे विचार बस गुलाम होते जा रहे आज भी जिस्म| कैसा कलयुग आया है ये खून के छींटे लगे पड़े हैं हर दूसरे जिस्म| हुकूमत की है यह बहुत पुरानी रस्म खून के बदले खून जिस्म के बदले जिस्म| आंखें बंजर होगी आगे देखो क्या होगा छोटी बच्ची से बुढ़िया का जिस्म नंगा होगा| अब तक कोई बचाने नहीं आया होगा जब निकलेगी चीख़ें खुदा चीख़ों में ही दफन होगा| "सुशील" लिख सकता है किस्से उसे क्या दर्द महसूस होगा, उसे क्या दर्द महसूस होगा | कहीं आजादी का जश्न था और कहीं गुलामी का मातम | किसी को घर मिलने की खुशी थी और किसी को घर छिनने का गम| स्वतंत्र ही रहे हमारे विचार बस गुलाम होते जा रहे आज भी जिस्म|