गिरती हूँ,संभलती हूँ, विश्वास का बल धरती हूँ..... फिर कुछ आगे बढ़ती हूँ...... फिर चोट नई फरसा लिये, रक्तसिक्त वर्षा लिये, फिर धराशायी निष्प्राण पड़ी, फिर छल को सम्मुख पाया हैं मुख कंटिल हर्षा लिये..... विश्वास से छल ने खेला हैं, गर्त स्याह में उसे धकेला हैं, निश्छल मन फिर रो दिया और अपना संबल खो दिया..... और अश्रुओं से गाल भिगो, निज निश्छल मन का रक्त बहा, खुद को मारती हूँ मैं, हां युद्ध तो सघन रहा, मगर हारती हूँ मैं...... हां हारती हूँ मैं................ @पुष्पवृतियां ©Pushpvritiya कुछ यूं ही सा..... छल और निश्छलता में द्वंद