प्यार के धन से धनी बनूँ पर कपट त्याग हिय द्वार न खोला, तुम तो सदा पास थे मेरे मैं ही बस्ती बस्ती डोला, सच है हम हैं यहाँ मुसाफिर ये जग चार दिनों का मेला, तुम हो रखवाले इस जग के फिर क्यों सोचूँ मैं हूँ अकेला, ह्रदय न भरे प्रेम से जब तक सब कुछ खाली सा लगता है, प्रेम वृष्टि से खिले सृष्टि का कमल, गुलाब,चमेली,बेला, पल दो पल ये दौलत सोहरत खाली हाथ करे सब रुख़सत, लालच, लोभ, स्वार्थ में पड़कर करते हैं सबलोग झमेला, भूख, प्यास, नींद की तुष्टि कल्पित कथा नहीं कर पाती, ख़्वाब तिमिर है किन्तु हकीक़त अरुणोदय की स्वर्णिम बेला, अन्तर्मन से नमन करूँ तुमको अर्पित चंचल मन मेरा, शरणागत घट छलके अमृत ज्योतिर्मय उर प्रेम खटोला, --शशि भूषण मिश्र 'गुंजन' चेन्नई तमिलनाडु ©Shashi Bhushan Mishra #कपट त्याग हिय द्वार न खोला#