पदत्राण ।। कुछ याद पुरानी आयी है, सिहरन देखो फिर छायी है। इस जीवन का हर एक सबक, जूते ने याद करायी है।। चूँ चूँ चीं चीं करता जूता, मुस्कान बड़ी भरता जूता। जो चलने की थी एक ललक, पूरी मेरी करता जूता। पढ़ने लिखने के दिन आये, बेधड़क बताये बिन आये। हाँ स्लेट नहीं अब कॉपी थी, जो लिखा मिटाये बिन आये। जब गणित पढा भूगोल दिखा, भौतिकी रसायन गोल दिखा। इतिहास रहा क्या मत पूछो, तारीखों में भी झोल दिखा। ऐसे पढ़कर मैं क्या पाता, नम्बर बोलो फिर क्या आता। मास्टर जी बड़े सलीके से, घर आये ले पोथी छाता। सोचो मुझपर क्या बीत रही, भरभरा गिरी सब भीत रही। बाबूजी से मैं क्या कहता, जूते से मानो प्रीत रही। जो सोचा था सब सच पाया, जूते से कब मैं बच पाया। इतिहास खुला सब बोल रहा, इतिहास कहो कब रच पाया। दनदना चले थे तब जूते, कब हाथ टले थे तब जूते। विज्ञान पे भी मन खीझ रहा, क्यूँ नाथ बने थे तब जूते। चमड़ा चमड़े से जा चिपका, मैं खड़ा रहा था तब ठिठका। कुछ याद नहीं गिनती भूला, हाँ रोम रोम था तब सिसका। वो बदल समय फिर आन पड़ा, जूते ले मैं हूँ आज खड़ा। बाबूजी मानो देख रहे, मैं हूँ घिग्घी फिर बाँध खड़ा। ये समय भला कब रुकता है, है टीस बना ये दुखता है। पर हाँ ये भी तो सच ही है, सूरज ढल कर ही उगता है। फिर भी मेरा जूता दे दो, बचपन मेरा बीता दे दो। माँ की गोदी और पितृ लाड़, जो समय रहा जीता दे दो। ©रजनीश "स्वछन्द" ©रजनीश "स्वच्छंद" #काव्ययात्रा_रजनीश