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किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ। कहानी एक सुनाने को, कि

किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ।

कहानी एक सुनाने को, किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ।
दुख की बदली, आंखों का नीर, बन मीन मैं पढ़ता हूँ।

सबल-निर्बल की चौड़ी खाई ले शब्द मैं पाटा करता हूँ,
आंसू जो हैं भाप बने, आंसू आंखों से छीन मैं लड़ता हूँ।

सुंदर स्वप्न पे हक सबका, जागीरदार बचा है कोई नहीं,
उनके हक की ही ख़ातिर, प्रयत्न हो दीन मैं करता हूँ।

प्रेम का धागा उलझा कहाँ है, मनुज मनुज भेद है क्यूँ,
धागा स्वेत और ले कुरुसिया, सुंदर दिन मैं कढ़ता हूँ।

धरा जो सबकी जननी है, धरा पे सबका हक तो हो,
स्वम्बू से कर शीतल सबको, बंजर जमीन मैं तरता हूँ।

पेट पीठ चिपके थे, फुटपाथों पर सोया भविष्य मिला,
मज़हब मेरा कोई नहीं, फिर क्यूँ हो हींन मैं गड़ता हूँ।

तुम सबल हुए महलों में रहे भौतिकता से लबरेज़,
देख विषमता दुनिया की, ले आत्मा मलीन मैं बढ़ता हूँ।

©रजनीश "स्वछंद" किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ।

कहानी एक सुनाने को, किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ।
दुख की बदली, आंखों का नीर, बन मीन मैं पढ़ता हूँ।

सबल-निर्बल की चौड़ी खाई ले शब्द मैं पाटा करता हूँ,
आंसू जो हैं भाप बने, आंसू आंखों से छीन मैं लड़ता हूँ।
किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ।

कहानी एक सुनाने को, किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ।
दुख की बदली, आंखों का नीर, बन मीन मैं पढ़ता हूँ।

सबल-निर्बल की चौड़ी खाई ले शब्द मैं पाटा करता हूँ,
आंसू जो हैं भाप बने, आंसू आंखों से छीन मैं लड़ता हूँ।

सुंदर स्वप्न पे हक सबका, जागीरदार बचा है कोई नहीं,
उनके हक की ही ख़ातिर, प्रयत्न हो दीन मैं करता हूँ।

प्रेम का धागा उलझा कहाँ है, मनुज मनुज भेद है क्यूँ,
धागा स्वेत और ले कुरुसिया, सुंदर दिन मैं कढ़ता हूँ।

धरा जो सबकी जननी है, धरा पे सबका हक तो हो,
स्वम्बू से कर शीतल सबको, बंजर जमीन मैं तरता हूँ।

पेट पीठ चिपके थे, फुटपाथों पर सोया भविष्य मिला,
मज़हब मेरा कोई नहीं, फिर क्यूँ हो हींन मैं गड़ता हूँ।

तुम सबल हुए महलों में रहे भौतिकता से लबरेज़,
देख विषमता दुनिया की, ले आत्मा मलीन मैं बढ़ता हूँ।

©रजनीश "स्वछंद" किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ।

कहानी एक सुनाने को, किस्से अनगिन मैं गढ़ता हूँ।
दुख की बदली, आंखों का नीर, बन मीन मैं पढ़ता हूँ।

सबल-निर्बल की चौड़ी खाई ले शब्द मैं पाटा करता हूँ,
आंसू जो हैं भाप बने, आंसू आंखों से छीन मैं लड़ता हूँ।