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मन के कोलाहल से जन्मी घृणा बीज मैं बो आई हूं भरी

मन के कोलाहल से जन्मी
घृणा बीज मैं  बो आई हूं
भरी हुई थी  प्रेम पोटली
राह कहीं पर खो आई हूं।

अगणित प्रयत्न किए थे  मैंने
हार  गई ,  सब   तज आई हूं
छोड़ - छाड़  श्रृंगार ये अपना
जोगन सी सज -धज आई हूं।

हां कह लेना अपराध मेरा था
क्योंकि अब ना सह पाई हूं
मैं कुंठित हूं, कुल्टा नहीं हूं
तब तो ये सब कह पाई हूं।

था साथ तुम्हारा जीवन मेरा
मैं  जीते  जी  मृत्यु  पाई  हूं
प्रीत ना अर्जन कर पाई पर
एक   ही  ये  आयु  पाई  हूं।

हां नहीं समर्पित कर सकती मैं
निज  में  संबल  ये  भर पाई हूं
बहुत  हुआ  मन  का  बंटवारा
इन   बंटवारों   से   तर  पाई हूं।

मन के कोलाहल से जन्मी
घृणा  बीज  मैं  बो आई हूं।
भरी  हुई  थी  प्रेम  पोटली
राह  कहीं  पर  खो आई हूं।

हर्षा मिश्र
शिक्षिका
रायपुर

©harsha mishra
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