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मरते मरते बचा था एक रोज़ मैं सोचता हूँ आज किसी पर

मरते मरते बचा था एक रोज़ मैं
सोचता हूँ आज किसी पर बोझ था मैं
न ख्वाहिशें पूरी हुई न मेरा हाल बदला
हार मान बैठा कितना कमजोर था मैं

गली मोहल्ले दोस्तों में शोर था मैं
उसने छुपाया खुद ऐसे जैसे चोर था मैं
बगावत पर उतर आयी थी ओ किसी और के मिल जाने पर 
पर उसके प्यार से लोगों में अपनों में मशहूर था मैं

©Aarav shayari
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