बहोत सुलझी कई उलझने, उलझी थी जो अस्कों से। रुकी कपकपाती पलकों की थिरकन, भीगी थी जो रिक्त रक्तों से। सुख., जैसे सपना हो गया था। सपने भी सूखे पड़े थे। मारे जो छींटे मद-ओ-जल के, उठते दिल से बुलबुले बनकर।। ये बुलबुले जो फूटे नहीं, ये सपने जो सिर्फ बुलबुले नहीं, फिर इन्ही बुलबुलों से खेलता गीतेय., इन्ही में सोता है, जागता है, कविता बनाता है।। -गीतेय... ©rritesh209 #Chaahat #uljhane #sapne #Bulbule #yqbaba #yqdidi #yqaestheticthoughts