221 1221 221 1221 आशिक़ की मुहब्बत का इतना सा फ़साना है लिक्खा है जिसे खूँ से, पानी से मिटाना है अब और कहाँ चलके तीमार को जाना है तेरी ज़फा से निकले तो दर्दे ज़माना है जाने तेरी आँखों में क्या ऐसा ख़ज़ाना है इक मैं नहीं हूँ मजनूँ, हर कोई दिवाना है बेलौस जवानी की मीठी है अदा ये भी आँखें भी मिलानी हैं , दामन भी छुड़ाना है छूने की मना करते, छूने भीे मगर देते कहता हूँ उन्हें जब मैं बस पाँव दबाना है पहलू में बुलाकर भी कैसी है इनायत ये जब माँगने पे कुछ भी बस आँख दिखाना है है 'राज़' अजब उनका रह रह के ख़फ़ा होना बातें भी नहीं करनी, और मुँह भी बनाना है ~राज़ नवादवी