लिख रहा हूँ जिदंगी को आखों से बहते आसूं से कलम का स्याही बनाकर कागज कि जरुरत नहीं है मुझे आज आसमान भी है मेरे साथ गम के बादल का चादर बनाकर । जल तो रहा हूँ हर रोज अब ओर किया तूम मुझपर कहर बरपावोगे खाक मैं कहां आग लगती है हल्के से हवा में वो उड जाता है उसे क्या रोक पाउगे। मुखोटा कबतक बदलोगे आखिर इनसान हैं हम भनक तो लग जाता है आसमान नहीं खिसकती कभी सर के उपर से हां जमीन पेर के निचे से खिसकता है। ©Tafizul Sambalpuri #मुखोटा