फासलें... ----------- हमारे दरमियाँ बस इतना-सा फासला है,जितना कभी-कभी गोधूलि पर होता है, चाँद और एक तारा के बीच..। बस इतना-सा फासला,जो सिंदूरी शाम की आभा में, छत से क्षितिज की ओर झाकता हुआ,तुम्हारी यादों में निमज्जित होकर, मैं अभी मेहसूस कर रहा हूँ, एक-दूसरे से दूर,एक-दूसरे में लीन, एक-दूसरे से तटस्थ,एक-दूसरे में स्थित, इन दो तन्मय खगोलीय नक्षत्रों के बीच। मानो प्रकृति हमारी दशाओं को अपनी छटा में उतार कर, अपनी भाषा में यह कह रही है, कि वो हमारी तड़प, चाहत और मोहब्बत की, अमूर्त पूकार को कितना समझती है! देखो न! प्रकृति का यह प्रतीकात्मक नजारा, हमारे प्रेम और फासले की,कैसी अलौकिक अभिव्यक्ति है? ऐसा लग रहा है,मैं तुममें, तुम मुझमें उतर रही हो, और इन दूरियां के बावजूद,मैं, मैं कहाँ हूँ, तुम, तुम कहाँ हो। ओह! आदमी के भीतर का प्रेम,कितना खूबसूरत होता है! जिसे धरती-आकाश,सूर्य, तारे, नक्षत्र, चंद्रमा, नदी, पहाड़,झरने, खेत-खलिहान,सब सहारा देते हैं। जैसे ये चाँद और तारे, और खेतों में झूमती हरियाली पर, गोधूलि के सुनहरे छींटे, मुझे सहारा दे रही है। ©पूर्वार्थ #फासले