a-person-standing-on-a-beach-at-sunset रफ़्ता-रफ़्ता सुखन में ढल रही हो क्या तुम भी मेरे फ़िराक़ में जल रही हो। जिस जगह तुम को बदलना होता न था अब वहीं आकर बातें बदल रही हो। खैर हम भी अब इस दुनियाँ से क्या ही उम्मीद करें जो खुद अपने ज़ख्म मल रही हो। ये कैसी मस्ती छाई हैं तुम में देर करके भी धीमे चल रही हो। हमें तो बस ज़िन्दगी के मजे लूटने हैं जानाँ वो जिंदगी ही क्या जो बस पल रही हो। इतने आब-ए-चश्म भी अच्छे नहीं होते इक छोटे से खयाल में इतना पिघल रही हो। क्या कोई काला जादू हुआ हैं तुम पर जो मेरी ज़िन्दगी से निकल रही हो। एक ख्वाब ही तो टूटा हैं हमारा, नया बना लेंगे तुम आखिर क्यूँ इतना मचल रही हो। -अभिषेक चौधरी ©Abhishek Choudhary #SunSet #Shayari